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________________ है। यदि वे इन सब कार्यों में भाग लेना आरम्भ कर दे, तो मुझे पूरा विश्वास है कि वे सब अभ्य जातियों से बाजी ले जा सकते है । आजकल जो जाति उन्नति करना चाहती है, उसके लिए आवश्यक है कि वह शक्तिशाली प्रेस की भी स्थापना करे। हमारा न कोई प्लेटफार्म है और न ही प्रेस ही है । जिन-जिन व्यक्तियो ने प्रेस चलाने का उद्योग भी किया और जातीय उन्नति के लिये प्रचार करना चाहा, उन्हे असफलता ही मिली। आज यदि हमारे किसी जातीय भाई का कोई पत्र' प्रकाशित होता है, तो वह इसलिये जीवित नही रहता कि उन्हें जाति की प्रोर से कोई विशेष सहायता नही मिलती है । इसलिए हमे आज से यह प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये कि हम अपने जातीय भाइयो के प्रेसो की पूरी-पूरी सहायता करेगे ताकि हमारे जातीय कष्ट प्रेसो द्वारा दूर करायें जा सकें तथा जाति के छोटे से छोटे कष्ट को प्रत्येक व्यक्ति के कानो तक पहुंचाया जा सके। मुझे यह बतलाने की कोई आवश्यकता नही कि हमारे जिन जातीय भाइयो के हाथ मे कोई भी कार्य है, उनकी सदैव यह इच्छा है कि वे जाति के नवयुवको की हर सम्भव सहायता कर सके । परन्तु इसमे सबसे बडी कठिनाई यह है कि ऐसी कोई सस्था नही कि जिसको वास्तव में सहायता की आवश्यकता हो और जो सहायता दे सकते है, उनका मिलाप करा सके। मुझे यह जानकर बड़ा हर्ष है कि 'वैश्य सहायक सभा देहली ने इस कार्य को करने का भार ले रखा है और वह जाति के नवयुवको को रोजगार दिलाने की हर प्रकार से सहायता कर रही है। यही नही वरन् इन्होने जाति के नवयुवको को भिन्न-भिन्न प्रकार के उद्योग-धन्धे सिखलाने का कार्य भी आरम्भ किया हुआ है । मेरा विचार है कि यदि भाप सभा की सहायता करेंगे तो यह सभा धापके बच्चो को बहुत कुछ लाभप्रद सिद्ध होगी । एक आदर्श उपयोगी संस्था भील श्राश्रम राजेन्द्रप्रसाद जैन, इन्दौर [लालाजी की सामाजिक कार्यों में विशेष रुचि थी । जैन समाज के कार्यों मे ही उन्हे उत्साह न था वरन् सेवा का कार्य करने का जब भी उन्हें अवसर मिला वे तत्काल उस कार्य प्रवृत हुए। गंगानगर प्रादर्श भील उद्योग आश्रम का उद्घाटन उनके हाथो से हुआ और उन्होने इस आश्रम मे विशेष रुचि प्रदर्शित की। इस सस्था का कुछ परिचय दिया जा रहा है ।] भारत के मुख्य विभाग मालवा, राजपूताना तथा गुजरात प्रात के घनै बनो मे आधुनिक शहरो से दूर, विध्याचल, मरवली व सतपुडा भादि पर्वतश्रेणियो के मध्य मे करोडो की सख्या मे वसने वाली भील जाति की दयनीय दशा की ओर यदि दृष्टिपात किया जाय, तो कोई भी ऐसा सहृदय व्यक्ति न होगा जो आँसू न बहाये। उक्त जाति भारतवर्ष की सबसे प्राचीन जाति है । यह मानने में तो किसी को विरोध नहीं हो सकता । राजनीति, शिक्षा शिल्प, विद्या तथा व्यापार मे, इतिहास मे उक्त जाति का स्थान क्या रहा होगा, यह तो नही कहा जा सकता, [ २६५
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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