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________________ सोनीपत, गगेरु, मल्हीपुर, शाहदरा, देहली करौलवाग, रोहतक, बुलन्दशहर, करनाल भरभरे, गढ़ीपुख्ता, सिकन्दरपुर, वडसू, रमाला आदि की जैन पचायती की भी सराहना की गई जिन्होंने अपने यहां दस्से भाइयो को पूजा-प्रक्षाल का अधिकार देने की उदारता दिखलाई है । साथ ही अन्य स्थानो की जैन पचायतो के लिए निश्चय करती है कि वे भी अपने यहा के दस्सा भाइयो को पूजा-प्रक्षाल करने के लिये उत्साहित करके जैन धर्म के प्राचीन आदर्श को उपस्थित करे । प्रस्ताव पेश होते समय पडाल मे तकरीवन ४ हजार पादमी मौजूद थे । स्थितिपालक दल के कई विद्वान भी स्टेज पर बैठे हुए थे। परन्तु प्रस्ताव ऐसे शब्दो तथा ऐसी सामाजिक स्थिति का बखान करते हुए पेश किया गया कि कोई भी उसके विरोध मे नही बोल सका और जनता तकरीबन डेढ घन्टे तक मन्त्र-मुग्ध की नाई सुनती रहती । इसके पश्चात् प्रस्ताव का समर्थन करने के लिये जब वा० बलवीरचन्द जी एडवोकेट मुजफ्फरनगर खडे हुए तो ३० या ३५ मादमियो ने जो कि कान्फेस मे केवल दगा ही करने आये थे, हल्ला मचाया और उनके साथ स्थितिपालक विद्वान भी उठकर चले गये। पश्चात् वा. लालचन्दजी एडवोकेट आदि के पुरजोर समर्थनो के वाद केवल २० के विरोध से प्रस्ताव पास हुआ । पश्चात् झण्डा गीत होकर सारे वाजार मे श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलीय के नेतृत्व मे भजन गाता हुआ जुलूस सारे मेले मे धूमा । रात को फिर कान्झ स की बैठक हुई। भजनो और पडित शीलचन्द के मगलाचरण और स्वामी कर्मानन्दजी के भाषण के पश्चात् श्री गोयलीयजी का जैन जाति के महान् पुरुषो के जीवन पर सामायिक और जोशीला व्याख्यान हुमा, बाद को कौशलप्रसादजी जैन ने वीर के लिये अपील की और सभा समाप्त हुई। चार तारीख को परिषद् को कान्फेस नियमित रूप से प्रारम्भ हुई। प्रात ही कई सौ आदमियो को उपस्थिति से प्रभात कान्फ्रेस शुरू हुई। सबसे पहिले भजन मोर मगलाचरण के वाद प० ताराचन्दजी न्यायतीर्थ का व्याख्यान हुमा । पश्चात् मास्टर उग्रसेनजी तथा सभापति जी आदि के बाद कान्फेस समाप्त की गई । कमनीय कामना पापाचार न एक भी जग मे, होवे कही भी कभी, बूढे, वाल, युवा, तथा युवति हो, धार्मिक-प्रेमी सभी । पृथ्वी का हर एक मर्त्य पशु से, साक्षात् वने देवता, पावे पामर पापमूर्ति जगती, स्वर्लोक से श्रेष्ठता । * * * * मुझे तो प्रणुवम और उद्जनवम जितने प्रलयकारी नहीं लगते, उतनी प्रलयकारी लगती है-चरित्रहीनता, विचारो की सकीर्णता । बम तो उन अपवित्र विचारो का फलितार्थ-माप है। [ २४६
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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