SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अतीत-स्मृति इन सूखे हाडो के भीतर भरी धधकती-ज्वाला । जिसे शान्त करने समर्थ है नही असित धनमाला ।। इस भग्नावशेप की रज में समुत्थान की आशारखती है अस्तित्व, किन्तु है नही देखने वाला ।। माना, प्राज हुए है कायर त्याग पूर्वजो की कृति । स्वर्ग अतीत, कला-कौशल, बल, हुमा सभी कुछ विस्मृति। पर फिर भी अवशिष्ट भाग मे भी इच्छित जीवन है वह क्या ? यही कि मन मे खेले नित अतीत की स्मृति ।। पतन मार्ग से विमुख, सुपथ में अग्रणीयता देकर । मानवीयता के सुपात्र मे अमर-अमिय-रस को भर॥ कर सकती नूतन-उमगमय ज्योति-राशि पालोकितभूल न जाएं यदि हम अपने पूर्वगुणी-जन का स्वर ॥ वह थे, हाँ । सन्तान उन्ही की हम भी आज कहाते । पर कितना चरणानुसरण कर कीर्तिराशि अपनाते । 'कुछ भी नही ।' इसी उत्तर मे केन्द्रित सारी चेष्टा~काश | याद भी रख सकते तो इतना नही लजाते । घर के धन्ना सेठ है वीर वही कुछ दुनिया मे, जो देश के हित मर जाते है। रहते है हमेशा बीह जिन्दा, जो धर्म पै जान गंवाते है ॥ १॥ कुढता है कोई तो कुढने दो, जलता है अगर तो जलने दो। जो भाई हमारे गाफिल है, सोते से हम उनको जगाते है ।। २ ॥ वो घर के धन्ना सेठ मही, बलवान सही, धनवान सही। लेकिन ये बताए तो कोई कुछ कौम के भी काम आते है ॥३॥ अपनो मे मोहब्वत रखते है गैरो से नही कुछ वैर हमे ।। मिल जुल के रहो ससार मे तुम पैगाम ये सबको सुनाते है ॥४॥ ऐ 'दास' न कर गम कुछ इसका, जलने से न गरो के घबरा।। हम अपने बिछुडे भटको को सोने से अपने लगाते है ॥ ५ ॥ २४२ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy