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________________ प्यारा है वतन अपना जलीलो स्वार होकर भी न बदला गर चलन अपना। तो खो बैठेगे हाथो से किसी दिन हम वतन अपना ॥१॥ फना हो जाएगे, मिट जाएंगे इसको बचाएंगे । कि हमको स्वर्ग से बढकर प्यारा है वतन अपना ।।२।। मिटा जिस रोज भारत, कुल जमाने में अधेरा है । कि सारे विश्व की शोभा बढाता है वतन अपना ।।३।। न पहना माज तक हमने विदेशी कोई भी कपडा। तमन्ना है कि बादेमर्गदेशी हो कफन अपना ॥४॥ उधर बेदाद' गैरो की, इधर आपस के झगडे है । विधाता दूर भी होगा कभी रजोमहन अपना ॥५॥ बनाया भावमी जिनको सिखाया बोलना जिनको । हमारे सामने ही खोलते है वो दहन' अपना ॥५॥ मगर अब भी खबर इसकी न ली ऐ 'दास' यारो ने । खिला की नज्ज हो जाएगा इकदिन यह चमन अपना ।।६।। साफ प्रकट है कि भारतवर्ष का अघ पतन जैनधर्म के अहिंसा सिद्धान्त के कारण नहीं समा था, बल्कि जब तक भारतवर्ष में जैनधर्म की प्रधानता रही थी, तब तक उसका इतिहास स्वर्णाक्षरो में लिखे जागे योग्य है और भारतवर्ष के ह्रास का मुख्य कारण प्रापसी प्रतिस्पर्धामय अनक्यता है जिसकी नीव शकराचार्य के जमाने मे डाली गई थी। मि. रेवरेन्ड जे० स्टीवेन्सन १ मरने के बाद २ जुल्म ३ दुख, तकलीफ ४ मुह ५ पतझड । २०८ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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