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________________ जातिवाद ने छीन लिये थे शूद्र-जनो के सब अधिकार । मानुपता से वचित मानव फिरता था वस मनुजाकार ॥ उमी समय इस पृथ्वीतल पर तुमने लिया पुण्य अवतार । राजपाट तज पुनः जगत का करने लगे सतत् उद्वार ।। ललनायं तेरे चरणो मे तेरे स्वागत पुष्प चढानी थी। उत्सुकता से पावन-पय में बढकर पुण्य कमाती थी। द्रम्लेच्छ सव ही में तुमने मातृ भाव दरसाया था। अन्यायों की होली करके नव-जीवन मरसाया था। गिह-गर्जना सुनकर तेरी हुए पराजित अत्याचार । मानुपता मिखलाई तूने है मानवता के शृङ्गार ।। कोरी कर्म-काण्डता विघटी, हुआ मूक पशु-वलि सहार। फूले ये जो अन्यायो से पछताते अव वारम्बार ।। अनेकान्त की अद्भुत शंली सव जग को दिखलाई थी। धर्म-समन्वय करके सत्र की मौलिकता दिखलाई थी। सम्प्रदाय के द्वन्दु भगाकर निज पर भेद मिटाया था। आध्यात्मिकता सिखा जगत की आनन्द पाठ पढ़ाया था । जनमत की परवाह न करके जगहित को दिखलाई राह । हुआ विरोध तुम्हारा लेकिन घटा न उससे कुछ उत्साह ॥ अन्त विजय-लक्ष्मी ने डारी कण्ठ तुम्हारे वर-वरमाल । 'जिन' कहलाये, गत्रु नशाये, गावें अब तक सब गुण माल ।। दुखियो को गोदी मे लेकर तुम्ही खिलाने वाले थे। प्यासो को सुधाम्बु निज कर से तुम्ही पिलाने वाले थे । मुर्दो मे भरकर नव जीवन, तुम्ही जिलाने वाले थे। अन्यायो की पकड़ जड़ो को, तुम्ही हिलाने वाले थे ।। महावीर थे वर्धमान तुम, सन्मति-नायक जगदाधार । सत्पथ दर्शक विश्व प्रेममय दया-अहिंसा के अवतार ।। प्रमुदित होकर मुझे सिखाभो सेवा पर होना बलिदान । मिट जाऊं पर मिटे न मेरा सेवामय उत्सर्ग महान ॥ २०० ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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