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________________ पूरे बीस साल के अथक परिश्रम के बाद इनका मनोरथ सफल हुआ। श्री जम्वू स्वामी की निर्वाण भूमि चौरासी (मथुरा) मे कार्तिक के मेले के अवसर पर सगठन कार्य को मूर्त रूप देने के लिए उपयुक्त समय समझा गया और सन् १८६५ मेले के मौके पर दिगम्बर जैन सभा की नीव डाली गई। इसका पहला अधिवेशन १८६६ मे माननीय राजा सेठ लक्षमणदास जी के सभापतित्व मे मथुरा मे बहुत शान के साथ हुआ । अधिवेशन मे जैन गजट को भी निकालने का निश्चय किया गया जिसका सम्पादक वावू सूरजभान जी वकील सहारनपुर को नियुक्त किया गया । महासभा के अधिवेशन का आयोजन भारत के विभिन्न स्थानो मे किया गया । हर स्थान मे महासभा के अधिवेशनो को अभूतपूर्व सफलता मिली। दि० जैन महासभा का कार्य बहुत व्यापक होता जा रहा था जिसका श्रेय राजा सेठ लक्षमणदास जी मथुरा, डिप्टी चम्पतराय जी कानपुर, सर सेठ हुकमचन्दजी इन्दौर, वावू निर्मलकुमारजी पारा, वैरिस्टर चम्पतरायजी, दानवीर साह सलेखचन्दजी नजीवावाद, तीर्थभक्त लाला देवीसहायजी फिरोजपुर, सेठ टीकमचन्दजी सोनी (अजमेर) और ला० जम्बूप्रसादजी रईस सहारनपुर को है। सन् १९२०-२२ तक तो म० भ० दि० ज० महासभा का कार्य बहुत ठीक चलता रहा, सव कार्यकर्ता लगन और प्रेमपूर्वक उत्साह के साथ महासभा का कार्य करते रहे; बाद में प्रतिक्रियावादी (रूढिवादी) और सुधारक विचारधारा रखने वाले सुधारको का मुद्रित जिन शास्त्रो के प्रचार, नवयुवको को शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेशो मे शिक्षा के लिए जाने देना, दस्सा विनफवारो का जिन मन्दिरो मे पूजा का समान अधिकार देने और समाज मे जैनो की विभिन्न जातियो मे अन्तर्जातीय विवाह करने के विपयो को लेकर सुधारक और रूढिवादियों के दो दल हो गए जिसके फलस्वरूप १९२३ मे दिल्ली की विम्ब प्रतिष्ठा के समय कुछ उत्साही सुधारक कार्यकर्तामो ने भारतवर्षीय दि० ज० परिपद की स्थापना कर दी, जिसके मुख्य सस्थापको मे बैरिस्टर चपतरायजी, ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी, बाबू अजीतप्रसाद जी लखनऊ, बाबू रतनलाल जी बिजनौर और साहू जुगमन्दरदास जी नजीबाबाद के नाम उल्लेखनीय है । प्र० भा० दि० ज० परिषद के उत्साही कार्यकर्तामो ने बहुत सकटो का सामना करके बडे-बड़े कार्य धर्म और समाज की उन्नति के लिए किए। प्राज मुद्रित जैन शास्त्र प्रायः सभी मन्दिरो मे दिखाई पड़ते है। विदेश यात्रा पर किसी को कोई आपत्ति नही, दस्सा और विनेकवार भाइयो के लिए जैन मन्दिरो मे पूजा करने की कोई रोक-टोक नहीं है । जैनो के आपस मे अन्तर्जातीय विवाहो की कोई रुकावट नही । मेरा यह सुझाव है कि तमाम भारतवर्ष के दि. जैन समाज का एक प्लेटफार्म हो, आवाज और प्रतिनिधित्व करने के लिए एक सयुक्त दि० जैन समिति बनाई जानी चाहिए जो कि तमाम समाज का नेतृत्व करे । इस समिति मे सभी अ०भा० दि० जैन सस्थाओ के दो-दो चारपार प्रतिनिधि उन संस्थानो की कार्यकारिणी द्वारा चुन कर भेजे हुओं को सयुक्त समिति का सदस्य बनाया जाए। [ १८५
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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