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________________ स्मृतियां और श्रद्धांजलि श्री श्यामलाल पांडवीय मुरार, ग्वालियर जैन समाज के अमूल्य रत्न वावू तनसुखराय जैन से मेरा सम्बन्ध गत ३० साल अर्थात सन् ३५ से उनकी मृत्यु तक रहा है। समाज भूला नही होगा जव आज से ३० वर्ष पूर्व सन् १९३५ मे भूतपूर्व ग्वालियर् राज्य मे जैन धर्म और जैन समाज पर एक वडा सकट आकर उपस्थित हो गया जो महगाव काण्ड के नाम से सारा जैन समाज परिचित है। महगाव के जैनियो द्वारा जिन भगवान का रथ तथा समोशरण माधव जयन्ती के लिए माधव महाराज की तसवीर को बिठाकर निकालने के लिए देने से इन्कार कर दिया था और उस पर से क्रुद्ध होकर जैन मन्दिर की प्रतिमाओ का खण्डित किया गया था और जैन धर्म तथा जैन शास्त्रो का अपमान किया गया था जैनियो का वहा रहना कठिन हो गया था। मैं उन दिनो ग्वालियर राज्य जैन ऐसोसिएशन का मन्त्री था । दि. जैन परिपद के दिल्ली अधिवेशन मे इस प्रश्न को लेकर दिल्ली अधिवेशन मे सहायता करने की मांग लेकर गया था अधिवेशन का अन्तिम दिन था, अधिवेशन समाप्त होने जा रहा था। मैने सब परिस्थिति रखकर इस सकट में सहायता करने की मांग की पर सब सुनकर रह गये । अधिवेशन खतम हो गया है अब क्या हो सकता है आगे इसे देखेंगे। मैं निराश हो गया आँखे डबडबा आई कि राजा के डर से कोई सहायता करने का साहस नहीं कर रहा है। इतने में एक तेजस्वी युवक अचकन और चूड़ीदार पायजामा पहिने चेहरे पर मुस्कान तेजस्वी रूप तपक कर सामने आ गया और पूछने लगा कहिये क्या सकट है। यही थे वावू तनसुखराय और यही था मेरा सन् १९३५ मे इस प्रसग को लेकर मेरा सर्वप्रथम परिचय और तब से मृत्यु दिन तक हम वरावर साथी और मित्र बने रहे। लाला तनसुखराय ने सारी हालत सुनकर जोर देकर कहा कि हमको सहायता करनी चाहिए और करेंगे। कभी पीछे नही हटेंगे और इसके विरोध मे परिषद का प्रस्ताव कराया और महगाव काण्ड का आन्दोलन चलाकर सारी जिम्मेदारी ले ली और अन्त तक बड़ी लगन और शक्ति से इसको सफल बनाया। लाला तनसुखराय के प्रयल से परिपद ने भारत-व्यापी जोरदार प्रान्दोलन उठाया। फलस्वरूप सारे देश मे जैन समाज में आग लग गई। जगह-जगह पैर महगांव काण्ड विरोधी दिवस मनाया गया, विरोध मे जलूस निकाले गये और प्रस्ताव पास किये जाकर ग्वालियर राज्य तथा भारत सरकार को भेजे गये । जैन समाज मे यह पहला अवसर था जब उसने संगठित होकर अपनी शक्ति का परिचय दिया। इस अत्याचार के प्रतिकार करने के इस प्रयास से राज्य का आसन डोल गया। इसकी सफलता का सारा श्रेय तनसुखराय को ही है। वे यदि आगे बढकर इसको अपने हाथ मे नही लेते तो न जाने जैन धर्म और जैनियो पर वहां क्या बीतती। १२५ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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