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________________ डिक्टेटर लालाजी थे, सरकार के अनुचित प्रतिरोध पर दृढता से सामना कर सफलता प्राप्त की । (ग) महगाव काण्ड नगा नाच धर्म-विरोधी श्राततायियो द्वारा ग्वालियर स्टेट मे हुआ । जैन मन्दिर मे प्रतिमाओ की चोरी, शास्त्रो का अग्निकाण्ड आदि होने तथा सूबेलाल जैन की मृत्यु आदि से जैन समाज क्षुब्ध हो उठा और उसकी बागडोर हमारे स्व० लालाजी ने सभाली । दर्शको और योग्य वकीलो, वैरिस्टरो के जाने का ताता वाघ दिया फलत स्टेट सरकार ग्वालियर भयभीत होकर थर्रा गई और हमारी शानदार विजय हुई। स्टेट के इतिहास में यह मौलिक उदाहरण लालाजी छोड़ गये थे । (घ) श्राबू का प्रान्दोलन - सिरोही स्टेट में हिन्दू व जैन मन्दिरो पर टैक्स देना पडता था । ऐसे दुराग्रह का विरोध करने के लिए ला० तनसुखरायजी ने अपनी सारी शक्ति श्रीर उसका त्याग कर सत्याग्रह की तैयारी की, दौरा किया। जगह-जगह थैलिया, मानपत्र मिले उत्साह बढता गया, आखिर सफलता लेकर ही लौटे। ऐसे एक नही सैकडो उदाहरण है जिन्हे इस साथी ने प्राणपण से साथ किया । (च) परिपद अधिवेशन झांसी, सतना, खडवा, देहली, भेलसा आदि की सफलता का पूर्ण श्रेय लालाजी को है जो जैन इतिहास मे सदा उल्लेखनीय रहेगे । उन्होने अपने जीवन मे क्रान्ति से आलिंगन करना ध्येय समझा । श्राँधी नाई, श्रोले बरसे, खूव तिरस्कार हुआ पर वीरात्मा इनकी परवाह नही करते हैं सफलता आलिंगन ही करती रही । हमे समाज सेवा में लालाजी की लगन, उत्साह, धैर्य का अनुसरण करना चाहिए । अथक परिश्रम करने पर भी हताश नही होना चाहिए । धुन का पक्का रहकर समाज सेवा मे दत्तचित्त रहना चाहिए -- यह सिखा गए है । धार्मिक जीवन - लालाजी धार्मिक सेवा में जैसे अग्रसर रहते थे वैसा ही उनका आचरण रहा है । कभी नाचरग, खेल-तमाशा रेडियो पर गाना सुनना सिनेमा देखने के वे विरोधी रहे है । खान-पान सात्विक एव शाकाहारी होना, सादा धार्मिक जीवन व्यतीत करना । सामाजिक कार्य अन्तिम जीवन से बहुत पूर्व करने लग गये थे । यही कारण था कि श्री शान्तिसागरजी प्राचार्य के अनन्य भक्त थे और भी अनेक गुणगाथाएं है जिन्हे लेख बढ जाने से विराम देना ही उचित समझा । लालाजी की धर्मपत्नी उनके विरह से दुखी है परन्तु उनमे भी लालाजी के समान गुण विद्यमान है। वे महिला समाज की जाग्रति तथा जैन महिलाश्रम देहली की सेवा तन-मन-धन से करेंगी और स्व० आत्मा का प्राशीर्वाद पाकर उनके चरण चिन्हो पर चलकर लालाजी के नाम को अमर बनाकर उनके पदचिह्नों पर चलेंगी, ऐसा मेरा विश्वास है । [ १२१
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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