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________________ उत्साहपूर्वक जैन धर्म-अहिंसा धर्म का प्रचार, सामाजिक कुरीतियो का निवारण कर । आज दहेज प्रथा के कारण जैन समाज का आर्थिक ढाचा अस्त-व्यस्त होता जा रहा है। लालाजी ने परिपद के माध्यम से अन्तर्जातीय विवाह का भारी प्रचार किया । फलस्वरूप ग्राज सैंकड़ो श्रन्तर्जातीय विवाह हो चुके । इनको प्रोत्साहन देते रहने की आवश्यकता है । स्वर्गीय आत्मा को शान्ति लाभ हो, यही शुभकामना है । * * लाला तनसुखरायजी की संक्षिप्त जीवन झांकी * श्री सुरेश कुमार जैन दिल्ली लाला तनमुखराय जैन एक पुराने समाज सेवी, नम्र और लगनशील कार्यकर्ता थे । इनका अविवाण जीवन समाजसेवा और जन-कल्याण मे बोता । आपकी कार्यशैली बहुत श्राकर्षक थी और समाज के कठिन से कठिन कार्य करने में भी वे नही झिझकते थे । ला० तनमुखराय जी का जन्म सन् १८६६ में अग्रवाल दिगम्बर जैन घराने मे ला० जोहरीमल जी के यहाँ हुआ । इनके परदादा ला० छज्जूमलजी ने अपने पुत्र गनेशीलालजी माथ गदर के बाद सन् १६६५ मे रोहतक से मुलतान की ओर प्रयत्न किया । वहाँ जाकर उन्होंने सर्राफा और लेनदेन का काम शुरू किया । ला० छज्जूमलजी बहुत परोपकारी थे और उन्हे वैद्य का बहुत शौक था । गरीवां को दवा मुफ्त दिया करते थे और घर जाकर रोगियो का देखते थे । अल्पकाल में उन्होंने ख्याति प्राप्त की। सरकार मे भी इन्हें बहुत मान मिला। उन्हे सरकारी खजाने का खजानची बना दिया गया। इसके वाद सराफे और लेनदेन का काम बहुत समय तक इनके दादा व पिताजी भी करते रहे । १९१४ में इनके पिता ला० जौहरीमल सकुटुम्ब भटिण्डा (पटियाला) रहने लगे, और वहाँ व्यापार शुरू किया । भटिन्डा में श्री तनसुखरायजी ने १९१८ में सरकारी नौकरी की और गांधीजी के असहयोग आन्दोलन के कारण सन् १९२१ सरकारी नौकरी छोडकर राजनैतिक क्षेत्र में कूद पड़े । सन् १९०८ मे ब्रह्मचारी श्रीतलप्रसादजी मुलतान मे पधारे। ला० सनमुखरायजी की बचपन से ही धार्मिक मनोवृति थी । जब तक ब्रह्मचारीजी मुलतान मे रहे, वे अपना अधिक समय उनकी सेवा मे बिताते रहे । तबसे जीवनपर्यन्त लालाजी की धर्म और सामाजिक कामां में रागन बराबर बनी रही । १०६ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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