SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मार्ग दर्शक श्री गिरिवरसिंह बडौत (मेरठ) सन् १९४४.४५ में दिल्ली के परेड ग्राउड में दि० जैन परिपद् की ओर से एक महान् सम्मेलन का आयोजन था । वडा पडाल, ऊचे-ऊचे शामियाने, बडा-सा मच था उसमें । सम्मेलन मे एक विशेप-प्रस्तावपेश किये जाने की चर्चा थी। जैन-जनता का सागर कुछ पक्ष मे, कुछ विपक्ष में उमड पडा । प्रस्ताव समय पर घटित हुआ । विरोधी पार्टी ने इतना शोर-गुल मचाया कि उत्सव का रूप भीषण संघर्ष में बदल गया । जलसे की व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गयी। उपस्थित नेतागण, पडित वृन्द तथा अनेक वक्ता एव सम्भ्रान्त अतिथि भाग-दौड में निकलने और जान बचाने आ मार्ग खोजने लगे । ऐसे समय मे लालाजी ने युक्ति से काम लिया । उन्होने पडाल की पिछली और की कनाते तुटवाकर एक छोटा-सा द्वार बनाया और सम्य-जनो को ससम्मान उस उमड़ती भीड मे से कुशलपूर्वक निकालकर सुरक्षित स्थान पर भेजा । उस समय की लालाजी की सूझ और विरोधी पक्ष का आक्रमणात्मक भयावना दृश्य मुझे अभी तक खूब याद आता रहता है। __लालाजी का हृष्ट-पुष्ट शरीर रोग से जर्जरित हो गया था । घुटनो मे दर्द और प्रांखो में पीड़ा रहने लगी थी। पाखो की शक्ति कम हो जाने मे, वे अव बहुधा रोग-गग्या पर ही रहने लगे थे। एक दिन में उनसे मिलने के लिए उनके पास गया, मैने जीने मे से ही आवाज़ लगाईलालाजी | और वे 'पायो भाई आओं' कहते हुए वे खडे होकर मुस्कराने लगे। बैठने का संकेत करते हुए, झिझकते से बोले-ऐं आप, आप कौन साहब हैं। मैं चकित-सा होकर वोला। लालाजी | क्या आपने मुझे नही पहिचाना है। और उन्हें कुछ चेत-सी आई । बोले, महा! अरे भाई गिरिवरसिंहजी हैं । अपने पर वे पश्चाताप-सा करते हुए बोले, भाई | कम सुनने लगा है। कम दीखने लगा है । नाराज़ न होना । इतना कहते-कहते वे घर में गये, ४ केले, २ सन्तरे और कुछ मिष्टान लाकर मेरे सामने रख दिया। अब मैं उनकी आत्म-वत्सलता, ममत्व और निश्छल प्रेम पर विचार करते हुए उनसे अनेक बातें कर रहा था। मैं सन् १९६३ मे पुस्तकालय-विज्ञान के प्रशिक्षणार्थ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलीगढ़ गया। मेरी आथिक स्थिति सीमित थी। परिवार का भार वहन करने में भी मैं भगक्त था। उन दिनो ला० नन्हेमल जैन जिन्दा थे और मैंने उन्ही की प्रेरणा से प्रेरित होकर वहा जाने का साहस किया था । यूनीवसिटी से स्वीकृति और उघर आर्थिक विषमता, से मैं परेशान था। लालाजी के फह से मासिक छात्र-वृत्ति का वचन मिलने से मैं ट्रेनिंग पर चला गया। कुछ कालान्तर पश्चात् छात्रवृत्ति का मिलना वन्द हो जाने से मैं दुविधा में पड़ गया। ट्रेनिंग रूपी सरिता की मझवार मे मेरी तरणी डावा-ढोल थी। इसको पार लगाने के सहायतार्थ एक पत्र मैने लालाजी को अलीगढ से लिखा । उन्होंने तुरन्त अपनी भगनी की पुत्र-वधू को जिनके पास छात्रो के लिये मासिक-छात्रवृत्ति का कोप था, एक पत्र भेज देने के लिये मुझे लिखा। तुरन्त वहां से सहायता चालू हो गयी और मैं गान्ति-पूर्वक शिक्षण प्राप्त कर वहां से चला आया। ७६ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy