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________________ स्वसमरानन्द ।। योद्धो नीचे मैंल बैठे हुए निर्मल जलके समान उज्जवल थे, अब ऐसे होगए जैसे नीचेको मैलं ऊपर साफ पानी में मिल जानेसे पानीकी हालत मैली हो जाती है । उपशमसम्यक्तमें किसी आयुकर्मका बंध नहीं होता था, अब यहाँ मोहकी प्रेरणांसे आयुकर्मसेनापतिने अपनी सेना युद्धभूमिमें भेजना भी ठान लिया। सच है, निर्बल दशाको देखते ही शत्रुओं का दबाव होता हैं। इस भूमिकामें आनकर आत्मवीर इतना तो सचेत ही रहा कि इसने किसी भी तरह उन छ: बड़े मोहके सैनिकोंकों उठने नहीं दिया। यद्यपि सम्यक्त मोहनीने आकर किसी कदर अपना नशा आत्मवीरकी सेनामें फैलाया तथापि इसकी सेना चौथे गुणस्थानसे नहीं हंटी। मैं निश्चयंसे शुडबुद्ध स्वभाव, ज्ञाता, दृष्टा, अविनाशी हूँ। कर्मसम्बन्ध अनादि होनेपर भी त्यागने योग्य हैं। निज अनुभूति यद्यपि नवीन है, पान्तु ग्रहण करने योग्य है, इस विचारको इस वीरने नहीं त्यागा । तथा सम्यक्त मोहनीके बलने कभी २ सप्त भयोंमें फंसाया; कभी २ संसारीकः भोगोंकी तृष्णाको 'बढ़वाया; कभी २.पर पदार्थोंमें उदासीनताके बदले घृणाको उत्पन्न कराया, कभी २ आत्मज्ञान रहित पुरुषों का धर्मपद्धतिसे आदर सत्कार करवाया, तो भी चौथे गुणस्थानसे कभी इसको धर्मपदंतिसे गिरा नहीं सका और नं इस मामवीरके पुरुषार्थको कम कर सका। यह वीर अपनी भूमिकामें खड़ा हुभा, आगे चलनेकी कोशिशकर रहा है और इस उपाय हैं कि अप्रत्याख्यानांवरणो कषायोंकी सेनाको दबाके पांचवें गुणस्थानमें चढ़े जाऊ । धन्य है. यह वीर ? श्रीगुरु विद्याधरके प्रतापसे यह ऑन स्वसुखकी - भावनामें लीन
SR No.010057
Book TitleSwasamarananda athwa Chetan Karm Yuddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages93
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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