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________________ समरानन्द | (२४) हाराजका कार्य एक हो रहा है । अन्तर केवळ सराग और चीतरागका है ! धन्य हैं वे वीतरागी सिद्ध भगवान जिनका ध्यान सरागी जीव करते वीतरागी हो जाते हैं और अपनी साधक और साध्य दोनों अवस्था में स्वसमरानंदके कारण और कार्यसे द्रवीभूत होता हुआ जो परमामृत रस उसका स्वाद लेते हुए परमतृप्त रहते हैं । › ( १२ ) उपशम सम्यक्तकी मनोहर भूमिकामें केल करनेवाला अत्मा जय शिवरमणीके प्यारी चिन्ताओं को कर रहा था और उसकी मुहब्बतसे पैदा होनेवाले आनन्दके लाभको ले रहा था, तब उधर मोहराजाके प्रबल सात भट जो आत्मवीरकी सेनासे थकके बैठ गए थे, वारचार मोहराना द्वारा प्रेरित किये जानेपर भी नहीं उठे । अंत तक मोहने इसका उद्यम किया परतु बिलकुल दाल न गली | आरमवीरके विशुद्ध परिणामरूपी योद्धाओंने इस कदर उन सातोंको परेशान किया था कि उनमेंसे छः वो बिलकुल निद्रित ही हो गए । सातवां सेनापति जिसका नाम सम्वतमोहनी प्रकृति था, जागता रहा। मोहकी डपटमें आकर वह उठा और ऐसी गफलत में उस वीरपर आक्रमण किया कि वह अत्मवीर उसको हटा नहीं सका। इसका प्रतिफल यह हुआ कि वह आत्मवीर उपशम सभ्यक्तकी भूमिकासे च्युत होकर क्षयोपशम सम्यक्तकी जमीन में आगया । इसने आते ही आत्मवीरकी सेना के विशुद्ध परिणामरूपी योद्धाओंके अन्दर मलीनता छा दी उनको सकम्प और चलायमान कर दिया । उपशम सम्यक्त की हालत में सर्व
SR No.010057
Book TitleSwasamarananda athwa Chetan Karm Yuddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages93
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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