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________________ ___(१८) स्वसमरानन्द। दिया। अब यह फिर पहिलेके समान बावला हो रहा है। नितने शत्रुओंकी सेना इसको निराकुल सुखानुभवसे रोक रही है उतने ही शत्रुओंकी सेनाएं बराबर आती रहती हैं और इसको बांधती रहती हैं । इस आत्माकी सत्ता भूमिमें अब सर्व १४५ शत्रुओंकी सेना ही खड़ी है, क्योंकि अभी तक यह न तो छठे गुणस्थान में चढ़ सका है और न इसे केवली श्रुतकेवलीकी निकटता हुई है और न १६ कारण भावनाका ऐसा मनन ही किया है जो इसे तीथकर प्रकृतिकी सेना बंधनमें डाले । बहुत फालतकं इस दीन आत्माको कर्म शत्रुओंसे अपनी निर्बल दशामें लड़ते हुए और हारते हुवे देखकर परम दयालु सत्यमित्र विद्याधर आते हैं और उसे ललकार कर कहते हैं, " हे आत्मन् किधर गाफिल हो रहा है ! ! देखो, कितने परिश्रमसे तूने मिथ्यात्व और ४ कपायोंको दवाया था ! ! ! परंतु तेरे प्रमादसे वे अब ५ से ७ होगए हैं अब तुझे साहस करनेकी आवश्यक्ता है । मैं तत्त्वज्ञानरूपी मेरे निकटवर्ती मुसाहबको तेरे पाप्त छोड़ता हूं। तृ. इसकी सहायता ले इसकी सम्मतिसे युद्ध कर अवश्य विजयी होगा!" सच है, जो सच्चे मित्र होते हैं वे दुःखीकी भापत्तियोंको मेटने के लिये अपनी शक्तिभर परिश्रम उठा नहीं रखते । तत्वज्ञ.नसे पुनः पुनः हरएक क्रिया में विचारके साथ वर्तनेवाला धीर आत्मा फिर निन पुरुषार्थ सम्हाल बड़ी ही वीरतासे, कर्म-शत्रूओंसे युद्ध करता है: देखते २ प्रायोग्यलब्धिको पा कर्माकी दशाको निर्बल कर देता है और शीघ्र ही तीनों कारणों के द्वारा सातों प्रकृतियोंको फिर दबाकर याने उपशमकर प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टी हो
SR No.010057
Book TitleSwasamarananda athwa Chetan Karm Yuddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages93
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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