SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (११) स्वसमशनन्द । शक्तिके आल्हाद में हर्षित होता हुआ स्वसमरान्दका आनन्द मना रहा है । (७) निज आत्मस्वरूपकी प्रकटताका अभिलाषी सिद्ध समान निज रूपका विश्वासी, वास्तवमें निज शुद्ध ग्रामका वासी आत्मा १ अंतर्मुहूर्त तक अपूर्व ही आनन्दको भोग रहा है । इस समय इसके आनन्दकी जाति भिन्न ही प्रकारकी है । इन्द्रियाधीन सुखकी सीमापर पहुंचे हुए बड़े २ धुरंधर ऐश्वर्यधारी इस सम्यक्त विलासके सुखसे मानंदित मात्मा समयमात्र सुखकी भी बराबरी नहीं कर सकते। असल में देखो तो यह आत्मा इस कालमें भी मोक्ष सुखका ही अनुभव कर रहा है । मानों मुझे मोक्ष प्राप्त ही हो 1 गई अथवा मैंने शिवतियाका लाभ ही कर लिया, ऐसा हर्ष इस वीर साहसी आत्माको हो रहा है । परन्तु खेद है यह इसका आनन्द थोड़ी ही देरके लिये हैं । यह तो इधर स्वस्वभाव कल्लोलमें फेल कर रहा है उधर मिथ्यात्व प्रकृतिने अपनी विक्रियासे इस आत्माको दवाने के लिये अपनी सेना के ३ रूप कर लिये १ ला सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व रूप २ रा सम्यक् मिथ्यात्वरूप और ३ रा मिथ्यात्वरूपा यह सेना एक दूसरे से विकटरूपमें सजती भई । इतने में ३ रा अनन्तानुबन्धी कषाय जो दवा बैठा है, यकायक उठता है और इसको निज सत्ता भूमिमें निद्रिन देखकर अपना ऐसा प्रचल हमला करता है कि उस उपशम सभ्यक्तीका उपयोग जागता है और ज्यों ही अपनी आंख खोलकर उसकी ओर निहारता है कि दवा लिया जाता है । और आनकी आनमें सम्यक्तसे गिरकर साप्ता|
SR No.010057
Book TitleSwasamarananda athwa Chetan Karm Yuddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages93
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy