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________________ वक्तव्य याद करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में । इबादत तो नहीं है, इक तरह की वह तिजारत है ॥ - 'अज्ञात' प्रतिष्ठा अथवा पुण्य-धन्ध के लालच को लेकर किसी कार्य के करने में समुचित फल की प्राप्ति नहीं होती । तो भी जो व्यक्ति तिजारत को ध्यान में रखते हुये धर्म कार्य करते हैं; उन्हें ध्यान रखना चाहिये कि साहित्य के प्रचार का जैनधर्म ने सबसे अधिक महत्व माना है। जैनधर्म में कथित आहारदान, श्रपधिदान, अभवदान का फल भोगने के लिये यह आत्मा किसी भी योनि में रहता हुआ अपने किये हुये दानों का फल प्राप्त कर सकता है; पर "ज्ञानदान " का फल पाने के लिये उसे नियम से मनुष्ययोनि में ही आना होगा; क्योंकि मनुष्य के सिवा और कोई जीव इसका उपयोग नहीं कर पाता । श्रतएव जैन समाज के श्रीमानों ! यदि तुम्हें सदैव मनुष्य बनना है-नारकी - पशु नहीं बनना है तो सव आडम्बरों को छोड़ कर ज्ञान-दान करना सीखो, भविष्य सुधारने के लिये उत्तम साहित्य निर्माण करो; अन्यथा बकौल "चकबस्त" साहव - मिटेगा दान भी और प्रावक भी जायेगी । तुम्हारे नाम से दुनियां की शर्म आयेगी ॥ २५ . मैं मन्दिर आदि बनवाने को बुरा नहीं समझता, मैंने स्वयं प्रस्तुत निबन्ध में प्राचीन मन्दिरों का बड़े गर्व से वर्णन किया है; पर इस समय उनकी और अधिक आवश्यकता नहीं । आज
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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