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________________ २५४ राजपूताने के जैन-चीर . ... दशा का पूरा पूरा पता लग जाता है । करमचन्द किस हालत में . रहा, यह बात इससे खूब मालूम होजाती है। जिस कारण से राजा और मंत्री में भगड़ा हुआ और अन्त में मंत्री को हानि पहुँचौ, वह भी इस से प्रकट होती है । रायसिंह दिन दिन अपव्ययी होता गया, खजाना बिलकुल खाली होगया और मालगुजारी का : सिलसिला विगड़ गया । भविष्य भयंकर मालम होने लगा। अन्त । में करमचन्द ने वीका के राजघराने से भक्ति और प्रेम के कारण, अपव्ययी राजा को सचेत करने का एक बार फिर उद्योग किया . परंतु उसका परिणाम बड़ा भीषण हुआ। ऐसा कहा जाता है कि सन् १५९५ ईस्वी में रायसिंह को मालूम हुआ कि करमचन्द ने दलपतसिंह व रामसिंह को मेरी जगह गही पर बैठाने के लिये षड्यंत्र रचा है और इससे करमचन्द अपने को राज्य में सबसे शक्तिशाली बनाना चाहता है। टाँक साहव लिखते हैं कि हम इन वाताको माननेके लिये जिनकी न कोई साक्षी है न कोई सन्भावना है, तैयार नहीं हैं। हमको करमचन्द में ऐसी कोई वातमालूम नहीं होती कि जिससे वह अपने स्वामी के विरुद्ध षड्यंत्र रचता । वे . लोगभी जो उसको दोषी बतलाते हैं उस व्यक्ति का नाम बताने में सहमत नहीं हैं, जिस के लिये षडयंत्र रचागया था, आया वह दलपतसिंह था या रामसिंह था, इसमें सबकी एक राय नहीं है - इसके अतिरिक्त इस बात से कि अकबर ने जो रायसिंह का मित्र था और जिसका लड़का रायसिंहके यहाँ व्याहा था, कर्मचन्द का. जब वह दिल्ली भागकर गया, बड़ा स्वागत किया। इससे पूर्णतया :
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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