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________________ त्रस जीवों को "हिंसा अहिंसा" :- एक स्त्री अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अपना प्राणान्त कर देती है और दूसरी अपने प्रेमी के न मिलने के वियोग मे अपना जीवन त्याग देती है । स्थूल दृष्टि से दोनो जगह प्राण-हानि समान है पर भाव दृष्टि से पहली प्राणहानि अहिंसा है और अनुकरणीय है क्योकि वहाँ चारित्र्य की रक्षा है, और दूसरी पूर्ण हिंसा है । यह त्याज्य है क्योकि वह विषय-वासना से परिपूर्ण है । एक माता ने, बच्चे को भूल से एक औषधि के बदले दूसरी औषधि जो पास ही पडी हुई थी, दे दी और बच्चे का प्राणान्त हो गया । एक अन्य स्त्री कामातुर हो, अपने कार्य में बाधक समझ अपने ही बच्चे की हत्या कर देती है । प्राण-हानि की दृष्टि से शिशुओं का प्राणान्त एक समान है पर पहली प्राण-हानि हिंसा नही कही जा सकती । जहाँ दूसरी महान् हिंसा और घोर पातक है । वहाँ पहली प्राण-हानि का, हिंसा न होने पर भी, अनुमोदन नही किया जा सकता क्योकि वह एक भूल है, जिसको करने का कर्त्ता को भी बड़ा भारी पश्चाताप है । जैन दर्शन का यह निर्णय वस्तुतः अनुपम है । चारित्र रक्षा के लिए हुई प्राण-हानि पूर्ण अहिंसा, अनुकरणीय एव अनुमोदनीय । भूलसे हुई प्राण हानि स्वीकारोक्ति से क्षम्य । बुरे हेतु से हुई प्राण-हानि पूर्ण हिंसा और महान् पापों का उदय । साध्वी के चारित्र्य की रक्षा : किसी साध्वी जी महाराज के चारित्र्य को भ्रष्ट करने वाले दुष्ट के प्रयास को विफल करने की चेष्टा में उसका प्राणान्त हो गया तो ऐसी प्राण हानि को क्या समझें? क्या यह हिंसा है ? यदि यह हिंसा और पाप है तो साध्वीजी को बचाना कभी उचित नही कहा जा सकता । यदि बचाना उचित है जैसा कि हम बराबर मानते हैं तो हमें दिल खोल कर कहना चाहिए -- साध्वीजी महाराज को बचाना " परम धर्म, परम अहिंसा ।" वास्तव मे जैनी इसे 'हिंसा' नही कह सकता क्योंकि उसका उद्देश्य किसी को मारने का नही, अपितु एक मात्र चारित्र्य - रक्षा है । 1 देश की रक्षा : - देश पर हमला होता है । क्या घर में बैठकर अहिंसा का जाप करें ? क्या दुष्टो का सामना करना हिंसक कृत्य समझें ? क्या प्राण-हानि से डर कर उनको अपने सत्व पर चोट करने दें ? नही ! कभी नही !! जैनी तो यही सोचेगा कि अपने चारित्र्य या चारित्र्य उदय के साधनो की हर संभव उपाय से रक्षा की जाय । यदि ऐसा नही किया जाता है तो उसका ८
SR No.010055
Book TitlePooja ka Uttam Adarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPanmal Kothari
PublisherSumermal Kothari
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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