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________________ विश्व-स्वरूप .५६ शक्तिकी अपेक्षा कहा जाय तो जलीय परमाणुओ तकमे अग्निरूप परिणत होनेकी भी सामर्थ्य है । इतना ही क्यो, वह तो अनन्त प्रकारका परिणमन दिखा सकते है। ऐसी स्थितिमे सुवर्णमे अनुद्भूत अग्नितत्त्वसदृश विचित्र वैशेषिक मान्यताएँ सत्यकी भूमिपर प्रतिष्ठा नही पाती। ___ साख्यदर्शन जड प्रकृतिको अमूर्तिक मान मूर्तिमान् विश्वकी सृष्टिको उसकी कृति स्वीकार करता है। पर वैज्ञानिकोको इसे स्वीकार करनेमें कठिनता पडेगी कि अमूतिकसे मूर्तिककी निष्पत्ति किस न्यायसे सम्भव होगी ? जैन दार्शनिक पुद्गलके परमाणुतकको मूर्तिमान् मानकर मूर्तिमान जगत् के उद्भवको वताते है। रेडियो, ग्रामोफोन, अणुवम आदि जगत्को चमत्कृत करनेवाली वैज्ञानिक शोध और कुछ नही पुद्गलकी अनन्त शक्तियोमेंसे कतिपय शक्तियोका विकासमात्र है। वैज्ञानिक लोग एक स्थानके सवादको 'ईथर' नामके काल्पनिक माध्यमको स्वीकार कर सुदूर प्रदेशमे पहुँचाते है। इस विषयमे हजारो वर्ष पूर्व जैन वैज्ञानिक ऋषि यह बता गये है कि पुद्गल-पुञ्ज (स्कन्ध) की एक सबसे बडी महास्कन्ध' नामकी सम्पूर्ण लोकव्यापी अवस्था है। वह अन्य भौतिक वस्तुओके समान स्थूल नही है। उस सूक्ष्म किन्तु जगत्व्यापी माध्यमके द्वारा सुदूर प्रदेशके सवाद आदि प्राप्त होते है । शब्द उस पुद्गलकी ही परिणति है। आज भौतिकविज्ञानके पण्डितोने शब्दका सग्रह करना, यन्त्रोके द्वारा घटाने-बढ़ाने आदि कार्योसे उसे भौतिक या पौद्गलिक माननेका मार्ग सरल कर दिया है, अन्यथा वैशेषिक दर्शनवालोको यह समझाना अत्यन्त कठिन था कि शब्दको आकाशका गुण कहनेवाली उनकी मान्यता सशोधनके योग्य है। शब्दको अनादि आकाशका गुण मान मीमासक लोग भी वेदको १ "तत्रान्त्यं (स्थौल्यं) जगद्व्यापिनि महास्कन्धे ।" -पूज्यपादः सर्वार्थसिद्धि ५-२४
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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