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________________ ५८ जैनशासन ___पुद्गलमे स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्णका सद्भाव अवश्यम्भावी है। ये चारो गुण प्रत्येक पुद्गलके छोटे-बडे रूपमे अवश्य होगे। ऐसा नहीं है कि किसी पदार्थ में केवल रस अथवा गन्ध आदि पृथक् पृथक् हो । जहा स्पर्श आदिमेसे एक भी गुण होगा, वहा अन्य गुण प्रकट या अप्रकट रूपमे अवश्य पाये जायगे । वैशेषिक दर्शनकारकी दृष्टिमे वायुमे केवल स्पर्श नामका गुण दिखाई देता है। यथार्थ बात यह है कि पवनमें स्पर्शके समान रस, गंध, वर्ण भी है पर वे अनुद्भुत अवस्थामे है । यदि केवल स्पर्श ही पवनका गुण माना जाए तो हाइड्रोजन, ऑक्सीजन नामकी पवनोके सयोगसे उत्पन्न जलमें भी पवनके समान रूपका बोध नही होना चाहिए था । जब जलपर्यायमें रूप आदिका बोध होता है तब वीजरूप पवनमे भी स्पर्श आदिके समान रूप आदिका भी सद्भाव स्वीकार करना चाहिए। इसी प्रकार जड-तत्त्वके विषयमे अनेक दार्शनिकोकी भान्त धारणाएँ है । वस्तुत देखा जाए तो पुद्गल अगणित रूपसे परिवर्तनका खेल दिखाकर जगत्को चमत्कृत करता है। चार्वाकके समान पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुरूप भूतचतुष्टय पृथक् अस्तित्व नही रखते। जो पुद्गलपरमाणु पृथ्वीरूपमे परिणत होते है, अनुकूल सामग्री पाकर उनका जल पवनादिरूप परिवर्तन हुआ करता है। दृश्यमान जगत्मे जो पौद्गलिक खेल है उसके आधारभूत प्रत्येक पुद्गलमे स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण पाया जाएगा। वैशेषिक दर्शन अग्निके तेजस्वी रूपके समान सुवर्णके तेजपूर्ण वर्णको देख उसमें अनुद्भूत अग्नि तत्त्वकी अद्भुत कल्पना करता है। यदि १ "स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः।"-तत्त्वार्थसूत्र, अ० ५ सू० २३ । २ "भेदात् सघातात् भेदसघाताभ्यां च पूर्यन्ते गलन्ते वेति पूरणगलनात्मिका क्रियामन्तर्भाव्य पुद्गलशब्दोऽन्वर्थः"... तत्त्वार्थराजवातिक प० १६०।०५ स० ११॥ ३ "सुवर्ण तैजसम, असति प्रतिबन्धकेऽत्यन्ताग्निसंयोगेऽपि अनुच्छिद्यमानद्रवत्वाधिकरणत्वात्"-तर्कसंग्रह पृ० ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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