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________________ जैनगासन है। क्या आकाग हमारे जानको मर्यादित कर सकता है ? सक्षेपमे कहना होगा कि सर्वन बननेकी क्षमता सव आत्माओमें है-वर्तमान कालमें अनेक पदार्थ अनात रहते है पर इसका अर्थ यह नहीं है कि वे सदा अज्ञात ही रहेंगे। यह निर्विवाद है कि जो पदार्थ सत्यान्वेपी समर्थ हृदयोमे प्रतिभामित नहीं होते है, उनका अस्तित्व कभी भी सिद्ध नही किया जाता और इसलिए उनका अभाव हो जायगा।" ___ उपर्युक्न अवतरणसे आत्माकी सकल पदार्थीको साक्षात् ग्रहण करनेकी शक्ति स्पष्ट होती है। त्रिकालवर्ती अनन्त पदार्थोको क्रम-क्रम से जानना असम्भव है, अत सर्वत्रताके तत्त्वको स्वीकार करनेपर युगपत् ही मर्व पदार्थोका ग्रहण स्वीकार करना होगा। मर्यादापूर्ण क्रमवर्ती अल्पन भी विशेष आत्मगक्तिके बल पर स्व० राजचद्र भाईके समान शतावधानी एक साथ सी बातोको अवधारण करनेकी जब क्षमता दिखाता है, नव सपूर्ण मोहनीय तथा नानावरणादि विकारोके पूर्णतया क्षय होनेमे यदि आत्म-शक्ति पूर्ण विकसित हो एक क्षणमे त्रैकालिक समस्त पदाथोको जान ले तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। हा, आत्मशक्ति और उसके वैभवको भूलकर मोह-पिगाचसे परतन्त्र किय गये प्राणियोकी दुर्वलताकी छाप (छाया) समर्थ आत्मायोपर लगाना यथार्थमे आश्चर्यकारी है। भौतिकताके भयकर भारसे अभिभूत जगत् जहा आत्मतत्त्वके अस्तित्वको स्वीकार करनेमें कठिनताका अनुभव करता है, वहा त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थोंको युगपत् ग्रहण करनेकी वात उसके अन्त करणमें बड़े कप्टसे प्रविष्ट हो मकेगी। किन्तु सूक्ष्म चिन्तक और यौगिक साधनाओके वलपर चमत्कारपूर्ण आत्मविकासको स्वीकार करनेवाले सर्वज्ञताको सह्न गिरोधार्य कर उसे जीवनका चरम लक्ष्य स्वीकार करेंगे। इस सर्वत्रता ( Omniscience ) के उत्पन्न होनेके पूर्व यात्मासे राग, द्वेप, क्रोध, मान, माया, लोभादि विकारोका पूर्णतया विनाग हो जाना आवश्यक है। विना इनके पूर्ण विनाश
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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