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________________ ४७ परमात्मा और सर्वज्ञता ही न्यायसंगत होगा । हर्बर्ट स्पेन्सरके समान 'अज्ञेयवाद' का समर्थन नही किया जा सकता । भला, उस पदार्थके सद्भावको कैसे स्वीकार किया जाए जो इस अनन्त जगत्मे किसी भी आत्माके ज्ञानका विपयभूत नही हुआ, नही होता है अथवा अनन्त भविष्यमें भी नही होगा । पदार्थोके अस्तित्वके लिए यह आवश्यक है, कि वे विज्ञान - ज्योतिके समक्ष अपने स्वरूपको बतानेमे सकोच न खाएँ, अन्यथा उन पदार्थोको रहनेका कोई अधिकार नही है । यो तो पदार्थ अपनी सहज शक्तिके वलपर रहते ही है, उनके भाग्य-विधानके लिए कोई अन्य विधाता नही है, किन्तु उनके सद्भावके निश्चयार्थं ज्ञान-ज्योतिमे प्रतिविम्वित होना आवश्यक है। इसका तात्पर्य यही है कि प्रत्येक पदार्थ किसी-न-किसी ज्ञाताके जानका ज्ञेय अवश्य था, है तथा रहेगा । जब पदार्थोंमे ज्ञानके विषय बननेकी शक्ति है, आत्मामे पदार्थोको जानने की सहज गक्ति है और जव आत्म-साधना के द्वारा चैतन्य-सूर्यका पूर्ण उदय हो जाता है तव ऐसी कौनसी वस्तु है जो उस आत्माके अलौकिक ज्ञानमे प्रतिविम्वित न होती हो और जिसे स्वीकार करनेमें हमारे तार्किकको पीड़ा होती है। जिस तरह चलने-फिरने दौड़नेमे शरीरकी मर्यादित शक्ति वाचक वन मर्यादातीत शारीरिक प्रवृत्तिको रोकती है, उस तरहका प्रतिवन्ध ज्ञानशक्तिके विषयमे नही है । पदार्थोका परिज्ञान करनेमे परम-आत्माको कोई कष्ट नही होता । जैसे, वाधक सामग्रीविहीन अग्निको पदार्थोंको भस्म करनेमे कोई रुकावट नही होती, उसी प्रकार राग - मोहादि बाधक सामग्रीविहीन आत्माको समस्त पदार्थोंको एक ही क्षणमे साक्षात्कार करनेमें कोई आपत्ति नही होती । सर्वज्ञताके सम्बन्धमे वैज्ञानिक धर्मका अन्वेषण करनेमें प्रयत्नशील और अन्तमे जैनधर्मको स्वीकार करनेवाली अंग्रेज वहिन डॉ० एलिजावेय फ्रेज़रने बड़े सरल शब्दोमे मार्मिक प्रकाश डाला है। उनका कहना है कि
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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