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________________ जैनशासन सामर्थ्यसम्पन्न आत्माके विषयमे सु-सगत नही है। जिसने अन्धलोकमें रह केवल जुगनूके प्रकाशका परिचय पाया है वह त्रिकालमे भी इसे स्वीकार करनेमे असमर्थ रहेगा कि सूर्य नामकी प्रकाशपूर्ण कोई ऐसी भी वस्तु है जो हजारो मीलोके अन्धकारको क्षणमात्रमे दूर कर देती है। जुगनूसदृश आत्मशक्तिको ससीम, दुर्बल, प्राणहीन-सा समझनेवाला अज्ञानताके अन्धलोकमे जन्मसे विचरण करनेवाला अज्ञ व्यक्ति प्रकाशमान तेजपुञ्ज आत्माकी सूर्य-सदृश शक्तिके विषयमे विकृत धारणाको कैसे परिवर्तित कर सकता है, जबतक कि उसे इसका (सूर्यका) दर्शन न हो जाए। ___ इस सर्वज्ञताके रहस्यको हृदयगम करनेके पूर्व मीमासकको कमसे कम यह तो मानना होगा ही कि विश्वकी सम्पूर्ण आत्माएँ समान है। जैसे खानिसे निकाला गया सुवर्ण केवल सुवर्णकी दृष्टिसे अपनेसे विशेष निर्मल अथवा पूर्ण परिशुद्ध सुवर्णसे किसी अशमे न्यूनशक्ति वाला नहीं है। यदि अग्नि आदिका सयोग मिल जाए तो वह मलिन सुवर्ण भी परिशुद्धताको प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार इस जगत्का प्रत्येक आत्मा राग, द्वेष, अज्ञान आदि विकारोका नाशकर परिशुद्ध अवस्थाको प्राप्त . कर सकता है। ऐसी परिशुद्ध आत्माओमे उनकी निज-शक्तिया आवरणोके दूर होनेसे पूर्णतया प्रकाशमान होगी। जो तत्त्व या पदार्थ किसी विशिष्ट आत्मामे प्रतिबिम्बित हो सकते है, उन्हे अन्य आत्मामे प्रतिबिम्बित होनेमे कौनसी बाधा आ सकेगी? यह तो विकृत वैभाविकशक्ति तथा साधनोका अत्याचार हैअतिरेक है-जो आत्माओमे विषमता एव भेद उपलब्ध होता है, अन्यथा स्वतन्त्र, विकासप्राप्त आत्माके गुणोकी अभिव्यक्ति समान रूपसे सब आत्माओमे हुए बिना न रहती। ___ इस सम्बन्धमे यह बात भी ध्यान रखनी चाहिए कि विश्वके पदार्थोके अस्तित्वका बोध आत्माकी ज्ञानशक्ति द्वारा होता है। जो पदार्थ ज्ञानकी ज्योतिमे अपना अस्तित्व नही बताता उसका अभाव मानना
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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