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________________ जैनशासन जाता। कदाचित् परिस्थितिविगेषवश कोई पथ-भूष्ट प्राणी विनाशकी ओर झुकता, तो वह करुणा-सागर पहिले ही उस पथ-भृष्टको सुमार्गपर लगाता और तब इस भूतलका स्वरूप दर्शनीय ही नही, सर्वदा वन्दनीय भी होता। विश्वके विधानमे विधाताका हस्तक्षेप होता, तो एक कविके शब्दोमे सुवर्णमे सुगन्ध, इक्षुमे फल, चन्दनमे पुष्प, विद्वान्मे धनाढ्यता और भूपतिमे दीर्घजीवनका अभाव न पाया जाता। प्रभुकी भक्तिमे निमग्न पुरुष निर्मल आकाश, रमणीय इन्द्रधनुष, विशाल हिमाचल, अगाध और अपार सिधु, सुगन्धित तथा मनोरम पुष्प आदि आकर्षक सामग्रीको देखकर प्रभुकी महिमाका गान करते हुए उन — सुन्दर पदार्थोके निर्माणके लिए उस परम पिताके प्रति हार्दिक श्रद्धाजलिया अर्पित करता है। किन्तु जब उसी भक्तकी दृष्टिमे इस जगत्की भीषण गन्दगी, बाह्य तथा आन्तरिक अपवित्रता, अनन्त विषमताएँ आती है, तब उन पदार्थोसे परमात्माका न्याय-प्राप्त सम्बन्ध स्वीकार करनेमे उसकी आत्माको अत्यधिक ठेस पहुंचती है। कौन ज्ञानवान् मासपीप-रुधिर-मल-मूत्र सदृश वीभत्स वस्तुओमे जीवोकी उत्पत्ति करनेके कौशल प्रदर्शनका श्रेय सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् परमानन्दमय परमात्माको प्रदान करनेका प्रयत्न करेगा। शान्त भावसे विचार करनेपर यह शका प्रत्येक चिन्तकके अन्त:करणमे उत्पन्न हुए बिना नही रहेगी कि उस परम प्रवीण पिताने अपनी श्रेष्ठ कृति रूप इस मानव-शरीरको 'पल-रुधिर-राध-मल थैली, कीकस वसादित मैली' बनानेका कप्ट क्यो उठाया? यदि विचारक व्यक्ति परमात्माके प्रयत्नके विना अपवित्र तथा घृणित पदार्थोका सद्भाव स्वीकार करनेका साहस करता है, तो उसे अन्य पदार्थोके विषयमे भी इसी न्यायको प्रदर्शित करनेका सत्-साहस दिखानेमे कौन-सी बाधा है ? १ “गन्धः सुवर्णे फलमिक्षुकाण्डे, नाकारि पुष्प खलु चन्दनेषु । विद्वान् धनी भूपतिर्दी र्घजीवी धातुः पुरा कोऽपि न बुद्धिदोऽभूत् ।।"
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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