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________________ जैनगासन 'वत्थसहावो धम्मो-आत्माकी स्वाभाविक अवस्था धर्म है-इसे दूसरे शब्दोमें कह सकते है कि स्वभाव-प्रकृति (Nature) का नाम धर्म है । विभाव, विकृतिका नाम अधर्म है। इस कसौटीपर लोगो के द्वारा आक्षेप किये गये हिंसा, दम्भ, विषय-तृष्णा आदि धर्म नामधारी पदार्थको कसते है तो वे पूर्णतया खोटे सिद्ध होते हैं। क्रोध,मान, माया, लोभ, राग, द्वेप, मोह, आदि जघन्य वृत्तियोके विकाससे आत्माकी स्वाभाविक निर्मलता और पवित्रताका विनाश होता है। इनके द्वारा आत्मामे विकृति उत्पन्न होती है जो आत्माके आनन्दोपवनको स्वाहा कर देती है। ___ अहिसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदिको अभिवृद्धि एव अभिव्यक्तिसे आत्मा अपनी स्वाभाविकताके समीप पहुँचते हुए स्वयं धर्म-मय बन जाता है । हिंसा आदिको जीवनोपयोगी अस्त्र मानकर यह पूछा जा सकता है कि अहिंमा, अपरिग्रह आदिको अथवा उनके साधनोको धर्म सज्ञा प्रदान करनेका क्या कारण है ? ___ राग-द्वेष-मोह आदिको यदि धर्म माना जाय तो उनका आत्मामे सदा सद्भाव पाया जाना चाहिये। किन्तु, अनुभव उन क्रोधादिकोके अस्थायित्व अतएव विकृतपनेको ही बताता है। अग्निके निमित्तसे जलमें होनेवाली उष्णता जलका स्वाभाविक परिणमन नही कहा जा सकता, उसे नैमित्तिक विकार कहेगे। अग्निका सम्पर्क दूर होनेपर वही पानी अपनी स्वाभाविक शीतलताको प्राप्त हो जाता है। शीतलताके लिए जैसे अन्य सामग्नीकी आवश्यकता नहीं होती और वह सदा पायी जा सकती है, १ "वत्युसहावो धम्मो धम्मो जो सो समो ति णिहितो। मोहक्कोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो॥" [वस्तुके स्वभावको धर्म कहते है, आत्माका स्वभाव समता, रागद्वेषसे रहित संतुलित मनोवृत्ति, मोह तथा क्रोधसे विहीन आत्मपरिणति धर्म है।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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