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________________ धर्म और उसकी आवश्यकता . १३ जब तक दुनिया में दुःख और मौत है तबतक लोगोको धर्मकी जरूरत रहेगी।...." न्यायमूर्ति नियोगी महाशयने धर्मतत्त्वके समर्थनमें एक बहुत सुन्दर बात कही थी-“यदि इस जगत्में वास्तविक धर्मका वास न रहे तो शान्तिके साधनरूप पुलिस आदिके होते हुए भी वास्तविक शान्तिकी स्थापना नहीं की जा सकती। जैसे पुलिस तथा सैनिकबलके कारण सामाज्यका सरक्षण घातक शक्तियोसे किया जाता है उसी प्रकार धर्मानुशासित अन्त करणके द्वारा आत्मा उच्छृखल तथा पापपूर्ण प्रवृत्तियोसे वचकर जीवन तथा समाज-निर्माणके कार्यमे उद्यत होता है।" उस धर्मके स्वरूपपर प्रकाश डालते हुए तार्किकचूडामणि आचार्य समन्तभद्र कहते है-"जो ससारके दुखोसे बचाकर इस जीवको उत्तम सुख प्राप्त करावे, वह धर्म है।" वैदिक दार्शनिक कहते है-"जिससे सर्वांगीण उदय-समृद्धि तथा मुक्तिकी प्राप्ति हो, वह धर्म है।" श्री विवेकानन्द मनुष्यमे विद्यमान देवत्वको अभिव्यक्तिको धर्म कहते है।" राधाकृष्णन् ‘सत्य तथा न्यायकी उपलब्धिको एव हिंसाके परित्यागको' धर्म मानते है। इस प्रकार जीवनमे 'सत्य शिव सुन्दरम्' को प्रतिष्ठित करनेवाले धर्मके विषयमे और भी विद्वानोके अनुभव पढनेमें आते है। आचार्य कुन्दकुन्दने धर्मपर व्यापक दृष्टि डालते हुए लिखा है १ "देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम्। ससारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥२॥" -रत्नकरण्डश्रावकाचार २ “यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।"-वैशेषिकदर्शन २०२ * Religion is the manifestation of divinity in man 8 "Religion is the pursuit and justice and abdication of violence."
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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