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________________ ४४२ जैनगासन भाव न होता, तो जिस श्राद्ध क्रियापर उनकी श्रद्धा नहीं थी, उसको करनेमे वापूके दुखद निधन के बाद भारत सरकार और राष्ट्रीय आदोलनके चालक महानुभाव महान् उद्योग और अपरिमित गक्तिका उपयोग क्यो करते और क्यो सैकड़ो सरिताओ और अनेक सिंधुओं आदिम अस्थिविसर्जनके कार्यमें आगे आते? धर्म निरपेक्ष राज्य शासन (Secular Government ) का इस विषयमे अग्रगामी वनना क्या नहीं बताता है, कि इस कार्यके पीछे कोई विशेष तत्त्व निहित है, जिसे प्रत्येक विज्ञ व्यक्ति जानता है? आज बापूकी पुण्यस्मृतिको सतत जागृत रखनेके लिए गाधी स्मारक निधिमे विपुल धनराशि एकत्रित की जा रही है, क्या उस धनकी धाराके द्वारा देशकी धर्मके नामपर रक्तरजित वसुधराको घोकर अहिंसाकी पुण्य मूर्तिको प्रकाशित करनेका कार्य नहीं किया जा सकता? वस्तुत इन कामोके लिए हृदयको टटोलनेकी जरूरत है और उसमें करुणाभाव-प्रसारके प्रति परम श्रद्धाके वीज बोनेकी आवश्यकता है। अन्यथा किसी न किसी आपातत. रम्य दिखनेवाली युक्तिके जाल द्वारा जीवोकी हिसाके जालको काटनेमे असमर्थता दिखाई जा सकती है और इस युगकी १ हिन्दी नवजीवन १५ अप्रैल सन् १९२६ में "विविध प्रश्न शीर्षक चर्चासे गांधीजीकी श्राद्धके प्रति श्रद्धाका असद्भाव बड़ी संयत भाषा द्वारा पक्त किया गया है। प्रश्न-श्राद्धके सम्बन्धमें आपका क्या अभिप्राय है? श्राद्ध करनेसे क्या सद्गति होती है ? गांधीजी कहते है, "श्राद्धके सम्बन्धम में उदासीन हूँ! उसकी कुछ आध्यात्मिक उपयोगिता हो तो भी में उसे नहीं जानता। श्राखसे मृत मनुष्यको सद्गति होती है, यह भी मेरी समझमें नहीं आता है। मृत देहके अस्थि गंगाजीने जाकर डालनेसे एक प्रकारके धार्मिक भावोको वृद्धि होती होगी, इसके अलावा उससे कोई दूसरा लाभ होता हो, तो वह मै नहीं जानता हूँ।" पृ० २७७ ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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