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________________ ४३२ जनशासन महापुरुषोसे सहमत होना होगा और अपने अस्तित्वके हेतु अहिसाको अपना मौलिक सिद्धान्त स्वीकार करना होगा।" ___ इस प्रसगमे भारतीय गणतत्र शासनके माननीय अध्यक्ष डा. राजेन्द्रप्रसादजी द्वारा २४ जनवरी सन् १९४६ को दिया गया सन्देश वड़ा उद्बोधक है कि “जैनधर्मने ससारको अहिसाकी शिक्षा दी है । किसी दूसरे धर्मने अहिंसाकी मर्यादा यहा तक नही पहुँचाई। आज ससारको अहिंसाकी आव- ' श्यकता महसूस हो रही है, क्योकि उसने हिंसाके नग्न-ताण्डवको देखा है और आम लोग डर रहे है, क्योकि हिंसाके साधन आज इतने बढते जा रहें है और इतने उग्न होते जा रहे है, कि युद्धमे किसीके जीतने या हारनेकी बात इतने महत्त्वकी नहीं होती, जितनी किसी देश या जातिके सभी लोगो को केवल निस्सहाय बना देने की ही नहीं, पर जीवनके मामूली सामानसे भी वचित कर देनेकी होती है।" इसलिए वे कहते है, "जिन्होने अहिंसाके मर्मको समझा है वही इस अंधकारमें कोई रास्ता निकाल सकते हैं"। राजेन्द्रबाबूके ये शब्द बडे विचारपूर्ण है, "जैनियोका आज मनुष्य समाजके प्रति सबसे बड़ा कर्त्तव्य यह है कि वह इसपर ध्यान दे और कोई रास्ता ढूंढ निकालें।" प्रमुख पुरुषोके ऐसे आतरिक उद्गारोसे यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि मानवताके परित्राणार्थ भगवती अहिसाकी प्रशान्त छायाका आश्रय लिए बिना अव कल्याण नहीं है। वास्तविक सुख, शाश्वतिक शान्ति और समृद्धिका उपाय क्रूरतापूर्ण प्रवृत्तिका परित्याग करनेमे है। वैज्ञानिक आविष्कारोके प्रसादसे हजारो मीलकी दूरीपर अवस्थित देश अब हमारे पडोसी सदृश हो गए है, और हमारे सुख-दुखकी समस्याएँ एक दूसरेके सुख दु खसे सम्बन्धित और निकटवर्तिनी बनती जा रही है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रसे पूर्णतया पृथक् रहकर अब अपना अद्भुत आलाप छेडते नहीं रह सकता है। ऐसी परिस्थितिमे हम सबके कल्याणकी,-दूसरे शब्दोमे जिसे सर्वोदयका मार्ग कहेगे,-ओर दृष्टि देनी होगी। इस सर्वोदयमे
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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