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________________ विश्वसमस्याएँ और जैनधर्म ४२१ भावके समुन्नत करनेका प्रयत्न करे । चालाकी, छल और प्रपच करनेवाला स्वय अपनी आत्माको धोखा देता है । अन्य धर्मगुरुओके समान जैनशासन इतना ही उपदेश देकर कृतकृत्य नही बनता है कि 'तुम्हे दूसरोका उपकार करना चाहिए। बुरे कामका फल अच्छा नही होगा ।' जैनधर्म जव विज्ञान ( Science ) है, तब उसमे प्रत्येक वातका स्पष्ट तथा सुव्यवस्थित वर्णन है । उसमे यह भी बताया है, कौनसे कार्य बुरे है, उनसे वचनेका क्या उपाय है आदि । आज जो पश्चिममे धनकी पूजा (Mammonworship ) हो रही है, उसके स्थानमे वहा करुणा, सत्य, परिमित परिग्रहवृत्ति, अचौर्य, ब्रह्मचर्य की आराधना होनी चाहिए । विद्याधन जैसे देने से वढता है, इसे लेनेवाला और देनेवाला आनन्दका अनुभव करता हैं, इसी प्रकार करुणा और प्रेमका प्रसाद है । करुणाकी छायामे सब जीव आनन्दित होते है । दूसरे प्राणीको मारकर मास खाना, शिकार खेलना आदि करुणाके विघातक है। मासाहार तो महापाप है । मासाहारीकी करुणा या अहिंसा ऐसी ही मनोरजक है, जैसे अन्धकारसे उज्ज्वल प्रकाश की प्रादुर्भूत होना । जव तक वडे राष्ट्र या उनके भाग्यविधाता मास-भक्षण, शिकार, मद्यपान, व्यभिचार, अनुचित उपायोसे दूसरोकी सपत्तिका अपहरण करना आदि विकृतियोसे अपनी और अपने देशकी रक्षा नही करते, तब तक उज्ज्वल भविष्यकी कल्पना करना कठिन है । हिंसादि पापोमे निमग्न व्यक्ति दूसरोके दुखोके निवारणकी सच्ची बात नही सोच पाता । असात्त्विक आहारपानसे पशुताका विकास होता है । सुखका सिन्धु वहा ही दिखाई पडता है, जहा करुणाकी मन्दाकिनी वहा करती है । कोई व्यक्ति तर्क कर सकता है कि आजके युगमे उपरोक्त नैतिकता के विकासकी चर्चा व्यर्थ है, कारण उसका पालन होना असम्भव है । ऐसी वातके समाधानमे हम यह बताना चाहते हैं, कि यदि कुछ समर्थ व्यक्ति अपने अन्तकरणमे पवित्र भावोके प्रसारकी गहरी प्रेरणा प्राप्त कर ले, तो असम्भव भी सम्भव हो सकता है। अकेले गान्धीजीने अपनी •
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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