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________________ ४२० जैनशासन असभ्य कहे जानेवाले मनुष्योकी स्वतंत्रताका अपहरण करे, उन्हे अनैतिक बना सदाके लिए अधकूपमे डाले रखे, ताकि वे फिर उच्च गौरवपूर्ण राष्ट्रके रूपमे अपना सिर न उठावे, उनका धन अपहरण करे, उनकी सस्कृतिको चौपट करे और एक प्रकारसे उनका जीवन पशुतापूर्ण वनावे, किन्तु इन अनर्थोका दुष्परिणाम भोगना ही पडेगा । प्रकृतिका यह अबाधित नियम, 'As you sow, so you reap' - 'जैसा बोओ, तैसा काटो इस विषयमे तनिक भी रियायत न करेगा । कथित ईश्वरका हस्तक्षेप भी पापपङ्कसे न बचावेगा। वैज्ञानिक धर्म तो यही शिक्षा देता है, कि अपने भाग्यनिर्माणकी शक्ति तुम्हारे ही हाथमे है, अन्यका विश्वास करना भूमपूर्ण है। अभी तो राजनैतिक जगत् के विधातागण अपने आपको साख्य के पुरुष समान पवित्र समझते है और यह भी सोचते है, कि अपने राष्ट्रहित के लिए जो कुछ भी कार्य करते है वह दोष उनसे लिप्त नही होता। जैसे प्रकृतिका किया गया समस्त कार्य पुरुषको बाधा नही पहुँचाता । यह महान् भ्रमजाल हैं । कर्तृ त्व और भोक्तृत्व पृथक्-पृथक् नही है । कारण भुक्तिक्रियाकर्तृत्व ही तो भोक्तृत्व है । जगत्का अनुभव भी इस बात का समर्थन करता है । जैनशासन सबको पुरुषार्थं और आत्मनिर्भरताकी पवित्र शिक्षा देता हुआ समझाता है, कि यदि तुमने दूसरोके साथ न्याय तथा उचित व्यवहार किया, तो इस पुण्याचरणसे तुम्हे विशेष शान्ति तथा आनन्द प्राप्त होगा । यदि तुमने दूसरोके न्यायोचित स्वत्वोका अपहरण किया, प्रभुताके मदमें आकर असमर्थोको पादाक्रान्त किया, तो तुम्हारा आगामी जीवन विपत्ति की घटासे घिरा हुआ रहेगा। इस आत्मनिर्भरताकी शिक्षाका प्रचार होना आवश्यक है । यदि प्रभुता मद-मत्त व्यक्तिकी समझमे यह आ गया, कि पशु-जगत्के नियमोका हमे स्वागत नही करना चाहिए तो कल्याणका मार्ग प्रारभ हो जायगा । ज्ञानवान् मानवका कर्त्तव्य है कि वह अपने जीवनकी चिन्तनाके साथ अपने असमर्थ अथवा अज्ञानी बन्धुओको बिना किसी भेद
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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