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________________ ४०८ जनगासन मोह पिशाच छल्यो मति मारे, निज कर कंध वसूला रे। भज श्रीराजमतीदर भूवर' दे दुरमति शिर धूला रे ॥४॥" X X X आत्माको मवार मानकर उसे सावधान करते हुए कहते है, गरीररूपी घोड़ा बड़ा दुष्ट है, इसे सम्हालकर रखो, अन्यथा यह वोखा देगा। विनयविजयजी कहते है "घोरा झूठा है , मत भूल असबारा। तोहि मुवा ये लागते प्यारा, अन्त होयगा न्यारा ॥ घोरा झूठा० ॥ पर चीन अरु डर केदसों, अवर चले अटारा। जीन कस तब सोया चाह खानेकी होशियारा ॥२॥ खूब खजाना खरच लिलामो, हो सब न्यामत दारा। अमवारीका अवसर प्राद, गलिया होय गंवारा ॥३॥ छिनु ताता छिनु प्यासा होवे, सेव करावन हारा। और दूर जंगलमें डार, यूरै धनी विचारा ॥४॥ कर चौकड़ा चातुर चौकस, द्यो चाबुक दो चारा । इस घोरेको 'विनय सिखावो, ज्® पावो भव पारा ॥५॥" X कविवर बनारसीदासजीका यह पद कितना अनमोल है "रेनन! कर समा सन्तोष, जात मिटत सब दुख-दोष । रे मन० ॥१॥ बढ़त परिग्रह मोह बाढ़त, अधिक तृषना होति । वहुत इंधन जरत जैसे अगनि ऊंची जोति ॥रे मन० ॥२॥ लोन लालब मूड-जनसो, व्हत कंचन नन । फिरन भारत नहिं विचारत, बरम धनकी हान ॥ रे मन०॥३॥
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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