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________________ पुण्यानुवन्वी वाड्मय ४०५ पुण्य प्रवृत्तियोको प्रबुद्ध करनेसे ससारका अभ्युदय ही उपलब्ध होगा, अमर जीवन और अविनाशी आनन्दकी उपलब्धि तो विभावका परित्याग कर स्वभावकी ओर प्रवृत्ति करनेसे होगी। तत्त्वज्ञानतरंगिणीका यह कथन वस्तुत यथार्थ है "दुष्करायपि कार्याणि हा शुभान्यशुभानि च । ___बहूनि विहितानीह नैव शुद्धात्मचिन्तनम् ॥" मैने अनेक दु खसाध्य शुभ तथा अशुभ कार्य किए , किन्तु खेद है अपनी विशुद्ध आत्माका कभी चिन्तन न किया। यदि यह आत्मा परावलम्बनको छोडकर अपनी आत्म-ज्योतिकी ओर दृष्टि कर ले, तो यह अनाथ न रह त्रिलोकीनाथ वन जाय। यह उक्ति कितनी सत्य है "तीन लोकका नाथ तू, क्यो बन रहा अनाथ ? । रत्नत्रय निधि साथ ले, क्यो न होय जगनाथ ? ॥" विवेकी मानवकी प्रवृत्तियोका चरम लक्ष्य अमृतत्वकी उपलब्धि है , जैन महापुरुषोने उसको लक्ष्य करके ही अपनी रचनाओका निर्माण किया है , कारण उस लक्ष्यके सिवाय अन्य तुच्छ ध्येयोकी पूर्ति द्वारा क्या परम साध्य होगा? इसीसे उपनिषदकार ने कहा है येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्याम् ?' एक वीतराग ऋषिके शब्दोमे सच्चा विद्वान् तो वह है, जो अपने इसी शरीरमें परम आनन्दसपन्न तथा राग-द्वेषरहित अर्हन्तको जानता है।' महापुरुष परमात्मपदको अपनेसे पृथक् अनुभव नहीं करते। हमने चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर महाराजसे यह वात अनेक वार सुनी है, कि हमारा भगवान् वाहर नही है, हृदयके भीतर बैठा है। जिसमे ऐसी १ जिसके द्वारा मुझे अमृतत्व नहीं मिले, उससे मुझे क्या करना है ? २ "परमालादसम्पन्न रागद्वेषविवर्जितम् । अर्हन्त देहमध्ये तु यो जानाति स पंडित. ॥"
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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