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________________ ४०४ जैनशासन "हंति ध्वान्तं हरयति रजः सत्त्वमाविष्करोति प्रज्ञां सूते वितरति सुखं न्यायवृत्तिं तनोति । धर्मे बुद्धि रचयतितरां पापबुद्धिं धुनीते पुसा नो वा फिमिह कुरुते संगतिः सज्जनानाम् ।।४६८॥" ससारमें पुण्यका ही ठाठ दिखता है, जिसके पास पुण्य की सपत्ति है, वह सर्वत्र जयशील होता है , किन्तु बिना पुण्यके महनीय कुलादिमें जन्म लेते हुए भी विपत्तिपूर्ण जीवन विताना पडता है; इसीसे कहा है, कि शूर तथा विद्वान् होते हुए भी पाडवोको वनमे भटकना पडा, अत शौर्य और पाडित्यके स्थानमें भाग्य बडा चाहिए "भाग्यवन्तं प्रसूयेथाः मा शूरान्मा च पण्डितान् । शूराश्च कृतविद्याश्च वने सीदन्ति पाण्डवाः ॥" इस विषयमे सुभाषितरत्नसदोहमे कहा है "पुरुषस्य भाग्यसमये पतितो वज्रोपि जायते कुसुमम् । कुसुममपि भाग्यविरहे वादपि निष्ठुर भवति ।। वान्धवमध्येऽपि जनो दुःखानि समेति पापपङ्केन । पुण्येन वैरिसदनं यातोऽपि न मुच्यते सौख्यम् ॥" पुरुषके भाग्य जगनेपर वज्रपात भी पुण्य सदृश हो जाता है, किन्तु अभाग्य होने पर कुसुम भी कठोर हो जाता है। पापोदयसे अपने वधुओके मध्यमे रहता हुआ भी यह दुखी होता है तथा पुण्योदयसे शत्रुके घरमे भी सुखको प्राप्त करता है। उस पुण्य, जिसके बल पर भाग्यका सितारा चमकता है, के अर्जनका उपाय महात्माओने जिनेन्द्र पूजा, सत्पात्रदान, अष्टमी, चतुर्दशी रूप पर्वकालमें उपवास तथा शीलका धारण करना कहा है "दानं पूजा च शोल च दिने पर्वण्युपोषितम् । धर्मश्चतुर्विधः सोऽयमाम्नातो गृहमेधिनाम् ॥"-महापु० १०४।४१ ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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