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________________ पुण्यानुवन्धी वाड्मय ३९७ "प्रियंवदः शिखीव द्विषत्सर्पानुच्छादयति ॥" १२८, १४४ । शस्त्रोपजीवियोके विषयमे आचार्य कहते है“शस्त्रोपजीविना कलहमन्तरेण भक्तमपि भुक्तं न जीर्यति।" १०३, १३७ । शस्त्रद्वारा जीविका करनेवालोका कलहके बिना खाया हुआ अन्न तक हजम नही होता है। "चिकित्सागम इव दोष-विशुद्धिहेतुर्दण्डः ।" १, १०२ । जैसे वैद्यकशास्त्र शरीरके विकारोको दूर करता है, उसी प्रकार दण्ड द्वारा दोषोका भी अभाव होता है। आचार्य सोमदेवका कथन है"अपराधकारिषु प्रशमः यतीनां भूषणं न महीपतीनाम् ॥" ___-नी० वा० ३७, पृ० ७८ । अपराधी व्यक्तियोके प्रति शान्त व्यवहार साधुओके लिये अलकार रूप है, नरेशोके लिए नही। शासन-व्यवस्थाके लिए अपराधीको उचित दण्ड देना चाहिये। महाराज पृथ्वीराजने मुहम्मदगोरीको पुन. पुन. छोडनेमे भूल की। यह सूत्र बताता है कि यतिका धर्म भूपतिने स्वीकार करके जो अकर्तव्यतत्परता दिखाई, उससे पृथ्वीराजको दुर्दिन दिखे और देशकी सस्कृतिको अभिभूत होनेका अवसर आया। राजद्रोहियो अथवा दुष्टोका तनिक भी विश्वास नही करना चाहिये। कारण"अग्निरिव स्वाश्रयमेव दहन्ति दुर्जनाः।" -नी० वा। आचार्य कितने महत्त्वकी शिक्षा देते है'न महताप्युपकारेण चित्तस्य तथानुरागो यथा विरागो भवत्यल्पेनाप्यपकारेण महान् उपकार करनेसे चित्तमे उतना अनुराग नहीं होता, जितना विराग अल्प भी अपकार या क्षति पहुचने से होता है। सोमदेव सूरिका कथन है कि प्राणघातकी अपेक्षा कीर्तिका लोप करना अधिक दोषपूर्ण है
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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