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________________ ३६६ जैनगासन सोमदेवसूरि बुढापेके कारण ववल हुए केशोके विषयमे बताते है'ये केश तुम्हे तपश्चर्याका पाठ पढाने आये है। ये मुक्तिलक्ष्मीके दर्शनके झरोखेके मार्गतुल्य है। चतुर्थ पुरुषार्थ (मोक्ष) रूपी वृक्षके अकुर समान है। परमकल्याणरूप निर्वाणके आनन्दरसके आगमनद्योतक अग्रदूत है।' आचार्यने इन केगोमे कितनी विलक्षण तथा पवित्र कल्पना की है और शिक्षा भी दी है "मुक्तिश्रियः प्रणयवीक्षणजालमार्गाः - पुंसां चतुर्यपुरुषार्थतरुप्ररोहाः । निःश्रेयसामृतरसागमनाग्नदूताः शुक्लाः कचा ननु तपश्चरणोपदेशाः ॥" -यशस्ति० २,१०४, पृ० २२५ । लोकविद्या अथवा व्यवहारकुशलताके वारेमें वे कहते हैं"लोकव्यवहारजो हि सर्वज्ञोऽन्यस्तु प्राज्ञोऽप्यवज्ञायते एव । ६५,१८४१ लोकव्यवहारका नाता सर्वन सदृश माना जाता है। अन्य व्यक्ति महान् नानी होते हुए भी तिरस्कृत होता है। आचार्य कहते है___ "उत्तापकत्वं हि सर्वकार्येषु सिद्धीनां प्रथमोऽन्तरायः ॥" सम्पूर्ण कार्योकी सफलतामे आद्य विघ्न है शान्तताका अभाव, अर्थात् मिजाजका गरम हो जाना। मसारमे शत्रुओकी वृद्धि करनेकी औपधि अन्यकी निन्दा करना है "न परपरिवादात्परं सर्वविद्वेषणभेषजमस्ति ॥" १२, १७७ । वाणीकी कठोरता शस्त्रप्रहारमे भी अधिक भीषण होती है। कहते "वाक्पारुण्यं शस्त्रपातादपि विशिष्यते ।" २७, १७६ । प्रिय वाणी वाला मयूर जैसे सोका उच्छेद करता है, उसी प्रकार मधुरभापी नरेश शत्रुका विनाग करता है।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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