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________________ जैनशासन ज्यो ज्यो आगे दौडता है , वह नयनाभिराम वस्तु दूर होती जाती है। इसी प्रकार भौतिक पदार्थोके पीछे दौडनेवाला सुखाभिलाषी प्राणी वास्तविक आनन्दामृतके पानसे वचित रहता है और अन्तमे इस लोकसे विदा होते समय सग्रहीत ममताकी सामग्रीके वियोग-व्यथासे सन्तप्त होता है। ऐसे अवसरपर सत्-पुरुषोकी मार्मिक शिक्षा ही स्मरण आती है "रे जिय, प्रभु सुमिरन में मन लगा लगा। लाख करोर की धरी रहेगी, संग न जइहै एक तगा।" इस प्रसगमे विद्या-प्रेमी नरेश भोजका जीवन-अनुभव भी विशेष उद्बोधक है। कहते है, जव महाराज अपनी सुन्दर रमणियो, स्नेही मित्रो, प्रेमी वन्धुओ, हार्दिक अनुरागी सेवको, हाथी-घोडे आदिकी अपूर्व सर्वांगीण आनन्ददायिनी सामग्रीको देखकर अपने विशिष्ट सौभाग्यपर उचित अभिमान करते हुए अपने महाकविसे हृदयकी वाते कर रहे थे, तब महाराज भोजके भ्रमको भगानेवाले तथा सत्यकी तहतक पहुँचनेवाले कविके इन शब्दोने उनकी आख खोल दी-"ठीक है महाराज, पुण्य-उदयसे आपके पास सब कुछ है, लेकिन यह तबतक ही है जबतक आपके नेत्र खुले हुए है। नेत्रोके वन्द होनेपर यह कहा रहेगा।" महाकवि भूधरदासजीको निम्न पक्तिया अन्तस्तल तक अपना प्रकाश पहुँचा वास्तविक मार्ग-दर्शन कराती है"तेज तुरंग सुरग भले रथ, मत्त मतंग उतंग खरे हो। दास खवास प्रवास अटा धन, जोर करोरन कोश भरे ही॥ ऐसे भये तो कहा भयौ हे नर ! छोर चले जब अत छरे ही। धाम खरे रहे काम परे रहे, दाम गरे रहे ठाम धरे ही॥" -जैनशतक ३३ । १ "चेतोहरा युवतयः सुहृदोऽनुकूला , सद्बान्धवाः प्रणयगर्भगिरश्च भृत्याः। वल्गन्ति दन्तिनिवहाः तरलास्तुरगा., सम्मीलिते नयनयोर्नहि किञ्चिदस्ति ॥"
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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