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________________ शान्तिकी ओर भौतिक पदार्थोसे प्राप्त होनेवाले सुखोकी निस्सारताको देखने तथा अनुभव करनेवाला एक तार्किक कहता है-'भाई, जगत्की वस्तुओसे जितना भी आनन्दका रस खीचा जा सके, उसे निकालनेमे क्यो चूको? शून्यकी अपेक्षा अल्प लाभ क्या बुरा है।' इस तार्किकने इस वातपर दृष्टिपात करनेका कप्ट नहीं उठाया, कि जगत्के क्षण-स्थायी आनन्दमे निमग्न होनेवाले तथा अपनेको कृत-कृत्य माननेवाले व्यक्तिकी कितनी करुण अवस्था होती है, जब इस आत्माको वर्तमान शरीर तथा अपनी कही जानेवाली सुन्दर, मनोहर, मनोरम प्यारी वस्तुओसे सहसा नाता तोडकर अन्य लोककी महायात्रा करनेको वाध्य होना पडता है। ___ कहते है, सम्राट सिकन्दर जो विश्वविजयके रगमे मस्त हो अपूर्व साम्राज्य-सुखके सुमधुर स्वप्नमें सलग्न था, मरते समय केवल इस वातसे अवर्णनीय आन्तरिक व्यथा अनुभव करता रहा था कि मै इस विशाल राज-वैभवका एक कण भी अपने साथ नहीं ले जा सकता। इसीलिए, जव समाटका शव बाहर निकाला गया, तव उसके साथ राज्यकी महान् वैभवपूर्ण सामग्री भी साथमे रखी गयी थी। उस समय सम्राट्के दोनो खाली हाथ वाहर रखे गये थे , जिसका यह तात्पर्य था कि विश्वविजयकी कामना करनेवाले महत्त्वाकाक्षी तथा पुरुषार्थी इस प्रतापी पुरुषने इतना बहुमूल्य सग्रह किया जो प्रेक्षकोंके चित्तमे विशेष व्यामोह उत्पन्न कर देता है। किन्तु फिर भी यह शासक कुछ भी सामग्री साथ नहीं ले जा रहा है। ऐसे सजीव तथा उद्बोधक उदाहरणसे यह प्रकाश प्राप्त होता है कि वाह्य पदार्थोमे सुखकी धारणा मूलमे ही भ्रमपूर्ण है। प्यासा हरिण ग्रीष्ममे पानी प्राप्त करनेकी लालसासे मरु-भूमिमें कितनी दौड़ नही लगाता; किन्तु मायाविनी मरीचिकाके भुलावेमे फैसकर वृद्धिगत पिपासासे पीड़ित होता है और प्यारे पानीके पास पहुँचनेका सौभाग्य ही नहीं पाताउसकी मोहनी-मूरत ही नयन-गोचर होती है, पुरुषार्थ करके
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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