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________________ पुण्यानुवन्धी वाड्मय ३५५ दृष्टिके समक्ष जैनियोके गोम्मटसार कर्मकाडमे वर्णित कर्म प्रकृतियोका सूक्ष्म वर्णन विद्यमान है, जिसे देखकर प्रत्येक विज्ञ व्यक्ति विस्मित हुए विना नहीं रहता। विस्मयका कारण यह है कि उस वर्णनमें कही भी पूर्वापर विरोध या अव्यवस्था नही आती। ___ डा. वासुदेवशरण अग्रवाल, अपने "जैन साहित्यमे प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री" शीर्षक निवन्धमे लिखते है-"हर्षकी बात है कि वौद्ध साहित्यसे सव वातोमें बराबरीका टक्कर लेने वाला जैनोका भी एक विशाल साहित्य है। दुर्भाग्यसे उनके प्रामाणिक और सुलभ प्रकाशनका कार्य बौद्ध साहित्यकी अपेक्षा कुछ पिछड़ा हुआ रह गया। इसी कारण महावीरकाल और उनके परवर्ती कालके इतिहास निर्माण और तिथि क्रम निर्णयमे जैन साहित्यका अधिक उपयोग नहीं हो पाया। अव शनै शनै. यह कमी दूर हो रही है।" डा० अग्रवाल लिखते है-"जैन समाजकी एक दूसरी बहुमूल्य देन है। वह मध्यकाल का जैनसाहित्य है जिसकी रचना संस्कृत और अपभ्रशमे लगभग एक सहस्र वर्षों तक (५०० ई०-१६०० ई०) होती रही। इसकी तुलना वौद्धोके उस परवर्ती संस्कृत साहित्यसे हो सकती है, जिसका समाट् कनिष्क या अश्वघोषके समयसे वनना शुरू हुआ और वारहवी शताब्दी अर्थात् नालन्दाके अस्त होने तक बनता रहा। दोनो साहित्योमे कई प्रकारकी समानताएँ और कुछ विषमताएँ भी है। दोनोमें वैज्ञानिक ग्रन्य अनेक है। काव्य और उपाख्यानोकी भी बहुतायत है। परन्तु बौद्धोके सहज यान और गुह्य समाजसे प्रेरित साहित्यके प्रभावसे जैन लोग बचे रहे। जैन-साहित्यमे ऐतिहासिक काव्य और प्रवन्धकी kinds of different things there are in the universe and they have them all tabulated and numbered, so that they shall bave a place for every thing and every thing in its place." p. 258.
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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