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________________ ३४६ जैनशासन अनुपात सवध अथवा अन्वय-व्यतिरेकभाव नहीं पाया जाता। जिस जैनशासनमे ईश्वरको दासताको भी स्वीकार न कर वौद्धिक और आत्मिक स्वाधीनताका चित्र विश्वके समक्ष रखा, जिस शिक्षणके द्वारा अगणित आत्माओने कर्म-शत्रुओका सहार कर परम-निर्वाण रूप स्वाधीनता प्राप्त की, उस धर्मके शिक्षणमे व्यक्तिगत व राष्ट्रके पतनका अन्वेषण मृगका मरीचिकामे पानी देखने जैसा है। जैन साधकका आदर्श भगवान् शातिनाथ सदृश चक्रवर्ती तीर्थकरका चरित्र रहता है, जिसने साम्राज्यकी अवस्थामे नरेद्रचक्र पर विजय प्राप्त की थी और अन्तमे भोगोको क्षणिक और निस्सार समझ मोह-शत्रुके नाशनिमित्त अत-बाह्य दिगम्बरन्वको अपनाकर कर्मसमूहको नष्ट किया। वास्तवमे विकास और प्रकाशका मार्ग वीरता है। इस वीरतामे दीनोका सहार नहीं होता। यह वीरता अन्याय और अत्याचारको पनपने नही देती। जैनधर्म प्रत्येक प्राणीको महावीर बननेका उपदेश देता है और कहता है -'विना महावीर वने तुम्हे सच्चा कल्याण नहीं मिल सकता, महावीरकी वृत्ति पर ही व्यक्ति अथवा समष्टिका अभ्युदय और अभ्युत्थान निर्भर है। कहते है, एक प्रतापी राजा अपने विजयोल्लासमे मस्त हो, सोचता था, कि इस जगत्मे ऐसा कोई व्यक्ति नहीं बचा, तो मेरे समक्ष अपने पराक्रमका प्रदर्शन कर सके, उसी समय छोटेसे निमित्तसे उसे क्रोध आगया, नेत्र रक्तवर्ण हो गए। कुछ कालके उपरान्त अन्त करणमे शान्तिका शासन स्थापित होने पर विवेक ज्योति जागी, तब उसे यह भान हुआ, कि मेरी महान् विजयकी कल्पना तत्त्वहीन है, मैने अपने अन्त करणमे विद्यमान प्रच्छन्न शत्रु क्रोधादिका तो नाश ही नहीं किया । तब वह लज्जित हुआ। आचार्य वादीसिंह लिखते है, जब जीदंधरकुमार काप्ठागारके अत्याचारकी कथा सुनते ही अत्यन्त क्रुद्ध हो गया था, तव आर्यनदी गुस्ने यही तत्व समझाया था, वत्स, सच्चे शत्रु पर यदि तुम्हे रोप है, तो इस क्रोध पर क्यो नही क्रुद्ध होते, कारण इसने तुम्हारे निर्वाण-साम्राज्य
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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