SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पराक्रम के प्रागणमे ३४५ मात्रसे सतुष्ट न होनेके कारण ही मानो उस दुर्घटनाका अभिनय वर्षमे होनेवाले द्वादश उत्सवोमे से पाच उत्सवोमें किया जाता है। 'वसवराजके नेतृत्वमे लिगायतोने कलचूर्यं राज्यसे जैनियोका १२वी सदी के अतमे सहार किया । तिरुज्ञान सबधरके समयमे अप्परस्वामी एक और शैव साधुने जैनधर्मके सहार करानेमे अग्निमे घृताहुतिका कार्य किया । अप्परस्वामी के बारे में कहा जाता है, कि वह पहले जैन था, पश्चात् एक विशेष घटना से अप्परस्वामीने शैवधर्म अगीकार कर लिया। इस कार्यमें उनकी बहिन की वडी तत्परता रही। अप्परस्वामीके पेटमें एक बार बडी पीडा उठी, अप्परस्वामीने शिव मंदिरमे पहुँचकर भक्ति की, इससे पेटकी पीडा दूर हो गई, और वह कट्टर शैव हो गया। साप्रदायिकोने यह प्रयत्न किया कि उन लोगोकी जैन हिसिनी नीति पर आवरण पड जाय, और उल्टा जैनियो को उनके हिंसनके लिए प्रयत्नशील रहनेका दोषी बनाया जाय, किन्तु मदुराके मीनाक्षी मन्दिरकी जैन सहारकी चित्रावली, सहारस्मृति उत्सव मनाना तथा "पैरिय्यपुराणम्" मे जैनधर्मके प्रति विषपूर्ण उद्गार प्रोफेसर आयगरके इस कथनको पूर्णतया सत्य प्रमाणित करते है कि इनके निमित्तसे जोहारका कार्य हुआ है वह ऐसा भयकर है, कि उसकी तुलनाकी सामग्री दक्षिण भारतमे कही भी नही मिलेगी । आज जैनधर्मके आराधक थोडी सख्यामें रह गए और अन्य धर्मपालको की जनगणनामे असाधारण अभिवृद्धि हुई । यदि आत्मविकास और अभ्यु - दयके तत्त्व जैनधर्मके शिक्षणमे न होते तो देशके ह्रास और विकासके साथ At the close of the 12th cen the Lingayatas under the ledership of Basava persecuted the Jains in the Kalachurya dominion P. 26 २ देखो - " साप्ताहिक भारत " - पेज ६, १० नवम्बर स० ४७ - अप्पर स्वामीपर लेख । "
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy