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________________ पराक्रमके प्रागणमे ३४३ तुरी चीज मानता है वह वीर नही हो सकता तथा जो सुखको सर्वश्रेष्ठ मानता है, वह सयमी नही बन सकता।" इस प्रकाशसे यह स्पष्ट होगा, कि जैनधर्मकी शिक्षायें वीरताके लिये कितनी अनुकूल तथा प्रेरक है। जो जरा भी सुखोका परित्याग नही कर सकता, वह जीवन उत्सर्गकी अग्निपरीक्षामें कैसे उत्तीर्ण हो सकता है ? जेम्स फूडने आजके भोगाकाक्षी तरुणोकी इन शब्दोमे आलोचना की है, 'Young men dream of martyrdom and unable to sacrifice a single pleasure.' ___ इस विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्मका गिक्षण पराक्रम और गौर्यसे विमुख नहीं कराता है। भारतवर्षमे जक्तक जैनशिक्षाका तथा जैनदृष्टिका प्रचार था, तब तक देश स्वतत्रताके गिखरपर समासीन था। जबसे भारतवर्षने क्रूरता, पारस्परिक कलह, भोगलोलुपता तथा स्वार्थपरताकी जघन्य वृत्तियोका स्वागत किया और साम्प्रदायिकता की विकृत दृष्टिसे वैज्ञानिक धर्मप्रसारके मार्ग में अपरमित वावाएँ डाली तथा धार्मिक अत्याचार किए तवसे स्वाधीनताके देवता कूच कर गए और दैन्य, दुर्वलता तथा दासताका दानव अपना ताडव नृत्य दिखाने लगा। एक विद्वान्ने जैन अहिंसाके प्रभावका वर्णन करते हुए कहा था"यदि १५ लाख जैनियोकी अहिंसा लगभग ४० कोटि मानवसमुदायकी हिसनवृत्तिको अभिभूतकर उसपर अपना प्रभाव दिखा सकती है, तब तो अहिसाको गजवकी ताकत हुई।" ऐसी अहिंसाके प्रभावके आगे दासता और दभरूप हिंसनवृत्तिपर प्रतिष्ठित माम्राज्यवादका झोपडा क्षणभरमे नष्ट-भ्रष्ट हुए विना नही रहेगा। वास्तवमे देखा जाय तो भारतवर्पके विकास ओर अभ्युत्थानका जैनगिक्षण और प्रभावके माथ घनिष्ठ सवध रहा है। निप्पक्ष समीक्षकको यह वात सहजमें विदित हो जायगी। कारण जव जैनधर्म चद्रगुप्त आदि नरेगोके साग़ज्यमे राष्ट्रधर्म वन करोडो प्रजाजनोका भाग्यनिर्माता था, तव यहा यथार्थमें दूधकी नदिया वहती
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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