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________________ ३४२ जैनशासन भारतवर्पने अपनी असहाय अवस्थामे स्वाधीनताके लिये जो अहिसात्मक राष्ट्रीय सग्राम छेडा है, उसमे भी जैनियोने जन, धन, जीवनके द्वारा राष्ट्रकी असाधारण सेवा की है। यदि राष्ट्रीय स्वाधीनताकै सग्राममे आहुति देनेवालोका धर्म और जातिके अनुसार लेखा लगाया जाय तो जैनियोका विशेष उल्लेखनीय स्थान पाया जायगा। प्राय स्वतत्र व्यवसायशील होनेके कारण जैनियोने काग्रेसके नेताओकी गद्दीपर बैठनेका प्रयत्न नहीं किया और वे सैनिक ही बने रहे, इस कारण सेनानायकोकी सूचीम समुचित सख्य' नही दिखाई पड़ती। सुभाष वावूने जो आजाद हिंद फौजका सगठन किया था, उसमे भी अनेक जैनोने भाग लेकर यह स्पष्ट कर दिया कि जैनियोकी शिक्षा सग्राम-स्थलमे सत्य और न्यायपूर्ण स्वत्वोके सरक्षणनिमित्त साधारण गृहस्थको सशस्त्र सग्रामसे पीछे कदम हटानेको नही प्रेरित करती। आजादीके मैदानमे वीरोको 'आगे बढ़े चलो'का ही उपदेश दिया गया है। जैनधर्मकी शिक्षा वीरत.को सजग करनेकी उपयुक्त मनोभूमिका तैयार करती है। आत्मा किस प्रकार ससार के जालसे छूटकर शाश्वतिक आनन्दमय मुक्तिको प्राप्त करे इस ध्येयकी पूर्तिनिमित्त जैन साधक कष्टोसे न घवडा कर, विपत्ति को सहर्ष आमत्रित कर स्वागतके लिए तत्पर रहता है । तत्वार्थ सूत्रकारने कहा है-"धर्ममार्गसे विचलित न हो जावे तथा कर्मोकी निर्जरा करनेके लिये कष्टोको आमत्रण देकर सहन करना चाहिये।" भौतिक सुखोका परित्याग कर आत्मीक आनन्दके अधीश्वर जिनेन्द्रोकी आराधनाके कारण सासारिक भोग-लालसासे विमुख होते कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तिको विलम्ब नही लगता, अत सत्यपथपर प्रवृत्ति निमित्त प्राणोत्सर्ग करना उनके लिये कोई बडी बात नही रहती। सिसरोने कहा है No man can be brave, who thinks pain the greatest evil, not temperate, who considers pleasure the highest good."-"जो व्यक्ति कप्टको सबसे
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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