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________________ ३२६ जैनशासन अपनी श्रेष्ठ 'दानवीरता' द्वारा महाराणाकी सहायता न की होती तो मेवाडका इतिहास न जाने किस रूपमे लिखा मिलता। जैनशासनमे आदर्श गहस्थके दो मुख्य कर्तव्य बताये गये है, एक तो वीरोकी वदना और दूसरा योग्य पात्रोको औषधि, शास्त्र, अभय, आहार नामके चार प्रकारका दान देना है। एक जैन साधक शिक्षा देते है"धन बिजुरी उनहार, नरभव लाही लीजिये।" आज भी जैन समाजमे दानकी उच्च परम्पराका पूर्णतया सरक्षण पाया जाता है। जैन अखबारोसे इस बातका पुष्ट प्रमाण प्राप्त होगा। असमर्थ जनोको इस सुन्दर शैलीसे समर्थ श्रीमान् सहायता देते थे, कि लेनेवालेके कल्पित गौरवकी भावनाको बिना आघात पहुँचे कार्य सपन्न किया जाता था। दानकी घोषणा कर दानवीर बननेके बदले सात्त्विक भावापन्न धनी श्रावक गुप्त रूपसे सहायता पहुँचाया करते थे। सर्वानन्दसूरि रचित 'जगडू-चरित्र' के आधारपर 'हरिजन' (११ मार्च सन् १९४७, पृ० १४३) मे एक लेख छपा था, कि सवत् १३१२ मे कच्छ प्रान्तके भद्रेश्वरपुरमे श्रीमाली जैन जगडू नामक श्रावक बड़े सपन्न तथा दानशील थे, जो रात्रिके समय सोनेके दीनार-सिक्का सयुक्त लाइ-समूह को विपुल मात्रामे कुलीन लोगोको अर्पण करते थे। प्रत्येक प्रान्तके बडेबुढोसे इस प्रकारकी साधर्मी वात्सल्यकी कथाएँ अनेक स्थलमे सुननेमे आती है। खेद है, कि आजके युगमे यह प्रवृत्ति सुप्तप्राय हो गई है। अब नामवरीको लक्ष्य करके दान देनेका भाव प्राय सर्वत्र दिखाई पड़ता है। १ कर्नल टाडके कथनानुसार यह धन २५ हजार सैन्यको १२ वर्ष तक भरणपोषणमें समर्थ था। -टाड राजस्थान १०२-३ २ "स्वर्णदीनारसंयुक्तान् लाजपिण्डान् स कोटिशः । निशायामर्पयामास कुलीनाय जनाय च ॥" -जगडूचरित्र ६।१३।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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