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________________ इतिहासके प्रकाशमे ३१३ तत्त्वका और ध्यान न रहनेसे रूपक तथा पौराणिकताने विवाद और वृन्द प्रारभ कर दिया | वैज्ञानिक समन्वयकारी प्रणालीके प्रकागमे विरोध, अनभाव्यता आदि दोप क्षणमात्रमे नष्ट हो जाते है। वैज्ञानिक पद्धतिको अगीकार करनेवालोके वगजोको आज जैन कहते है। जिन्होने पहलेपहले रूपक या आलकारिक पौराणिकता को अपनाया वे हिन्दू कहे जाते है । इस दृष्टिसे जैनधर्म वैदिक धर्म से पूर्ववर्ती सिद्ध होता है । सिन्धु नदी के तट पर अवस्थित मोहनजोदड़ो एव हड़प्पा नामक स्थानोमे खुदाईके द्वारा जो आजसे पाच हजार वर्ष पूर्वी भारतीय समृद्धि, विकास तथा सभ्यताको बताने वाली महत्त्वपूर्ण सवते प्राचीन सामग्री उपलब्ध हुई है, उससे भी जैनधर्मकी प्राचीनतापर प्रकाश पडता है और यह सूचित होता है कि प्राचीनतम सामग्री जैनधर्म तथा संस्कृति के स्वतंत्र सद्भावको बताती है। जब कि आज विद्यमान सस्कृतियो और धर्मोका नामोनिशान नहीं मिलता, तव भी जैन-संस्कृतिका सद्भाव बतानेवाली महत्त्वपूर्ण सामग्री जैनधर्मकी प्राचीनताको प्रकट करती है। उक्त खुदाईमें उपलब्ध सील- मुहर न० ४४९ मे डा० प्राणनाथ विद्यालकार-जैसे वैदिक विद्वान जिनेश्वर शब्दका सद्भाव पढते है । रायबहादुर चंदा जैसे महान् पुरातत्त्वज्ञका कथन है कि वहा की मोहरोमे जो मूर्ति पाई जाती है, उनमे मथुराकी ऋषभदेवकी खड्गासन मूर्तिके समान त्याग अथवा वैराग्यका भाव अकित है। सील न० एफ० जी० एच० में वैराग्य मुद्राके साथ, नीचेके भागमें, ऋषभदेवका सूचक वैलका चिह्न भी पाया जाता है ।" o १ Ramprasad Chanda "Sindh Five Thousand Years ego in Modern Review August 1932 plate 11 flc. d & p. 159 “the pose of the image (standing Rishabha in Kavetsarga form from Mathura reproduced in fig. 12)
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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