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________________ ३०४ । जैनशासन धर्मगुरु पृथक् थे। वे जैनधर्मका सरक्षण करते थे । " प्रोफेसर चक्रवर्ती ने अथर्ववेद अनेक बार उल्लिखित व्रात्यका अर्थ यज्ञ करनेवालेके विपरीत व्रत पालनेवाला किया है ।" प्राचीन प्रतिवाले, वेद आदिका परिशीलन कर महान् विद्वान् पं० टोडरमलजीने अपने 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' ग्रन्थमे अनेक अवतरण देकर बताया है कि वेदोमे चौबीस तीर्थंकरोकी वन्दना की गई है । उसमे नेमिनाथ, सुपार्श्वनाथ नामक २२ वे तथा सातवे तीर्थकरका उल्लेख किया गया है, किन्तु वर्तमान वेदके सस्करणोमे अनेक मत्रोका दर्शन नही होता। इसका कारण श्री वैरिस्टर चम्पतरायजीके शब्दोमे यह है कि साप्रदायिक विद्वेषवश प्रथमे काट छाट अवश्य हुई है । श्रीहरिसत्य भट्टाचार्य एम० ए० सदृश उदार विद्वान् 'भगवान् अरिष्टनेमि' नामक अग्रेजी पुस्तक ( पृ० ८८८) मे नेमिनाथ भगवान्‌को ऐतिहासिक महापुरुष स्वीकार करते है । यदि महाभारतके प्रमुख पुरुष श्रीकृष्ण इतिहासकी भाषा मे अस्तित्व रखते है, तो उनके चचेरे भाई परम दयालु भगवान् नेमिनाथको कौन सहृदय ऐतिहासिक विभूति न मानेगा, (जिनके निर्वाण स्थल रूपमे उर्जयन्त गिरि पूजा जाता है जैनेतर साहित्य, जैन वाड्मय तथा शिलालेख आदिके प्रकाशमे जैनधर्म भारतका सबसे प्राचीन धर्म प्रमाणित होता है । जैनशास्त्रोका 1 Eng Jain Gazette part 6, vol XXXI २ "It is interesting to note that Jain writers have quoted many other passages from the Vedas themselves, which are no longer to be found in the current editions Weeding has very likely been carried out on a large scale This may be accounted for by the bitter hostility of the Hindus towards Jainism in recent historical times" Rishabhadeva P. 68
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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