SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 322
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८६ जैनशासन करते-करते दोष सचयसे आत्मा बचकर परम - आत्मा बननेकी ओर प्रगति 'प्रारम्भ कर देती है । षोडशकारण पर्व - इसमे दर्शनविशुद्धता, विनयसपन्नता शील `तथा व्रतोका निर्दोष परिपालन, षट्आवश्यकोका पूर्णतया पालन करना, सतत ज्ञानाराधन, यथाशक्ति त्याग तथा तपश्चर्या, साधु-समाधि, साधुकी वैयावृत्य-परिचर्या, अरिहत भगवान्, आचार्य तथा उपाध्यायकी भक्ति, श्रुत-भक्ति, दयामय जिन शासनकी महिमाको प्रकाशित करना, जिन शासनके समाराधको के प्रति यथार्थ वात्सल्य भाव रखना इन सोलह भावनाओके द्वारा साधक विश्व उद्धारक तीर्थकर भगवान्का श्रेष्ठ पद प्राप्त करता है। इन सोलह भावनाओको तीर्थकर पदके लिए कारणरूप होनेसे 'कारण भावना' कहते है । इनमे प्रथम भावना प्रधान है । जब कोई पवित्र मनोवृत्तिवाला तत्त्वज्ञ साधक जिनेन्द्र भगवान्‌के साक्षात् सान्निध्यको प्राप्त कर यह देखता है कि प्रभुकी अमृत तथा अभय वाणीके द्वारा सभी प्राणी मिथ्यात्वभावको छोड सच्चे कल्याणके मार्गमे प्रवृत्त हो रहे है, तब उसके हृदयमे भी यह बल - प्रेरणा जागृत होती है कि भगवन्, मै भी पापपकमे निमग्न दीन दुखी पथभूष्ट प्राणियो को कल्याणके मार्गमे लगानेमे समर्थ हो जाऊँ, तो में अपनेको सौभाग्यशाली अनुभव करूँगा । इस प्रकार विश्व कल्याणकी सच्ची भावना द्वारा यह साधक ऐसे कर्मका सचय करता है, कि जिससे वह आगामी कालमे तीर्थंकरके सर्वोच्च पदको प्राप्त करता है । सम्प्राट् बिम्बसार - श्रेणिकने भगवान् महावीर प्रभु के समवशरणमे इस भावनाके द्वारा तीर्थंकर प्रकृतिका सातिशय बध किया और इससे वे आगामी कालमें महापद्म नामके प्रथम तीर्थ कर होगे । इन सोलह कारण भावनाओके प्रभावपर जैनपूजामे द्यानतरायजी ने इस प्रकार प्रकाश डाला है - " दरस विसुद्ध धरै जो कोई । ताको आवागमन न होई ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy