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________________ साधकके पर्व २८५ यचिंतन एव उनकी उपलब्धिनिमित्त अभ्यास तथा भावना की जाती है। साधक गुणमय परमात्माके उपरोक्त गुणोकी भेदविवक्षा द्वारा पूजन करके अपने मनको उज्ज्वल विचारोकी ओर प्रेरित करता है। इस पर्वमे जो पूजा की जाती है वह बहुत उद्बोधक, गान्ति तथा स्फूर्तिप्रद है। यह पर्व यथार्थमे सपूर्ण विश्वके द्वारा उत्साहपूर्वक मानने योग्य है। यदि दशलक्षण धर्मका प्रकाश जगत्मे व्याप्त हो जाय, तो ससारमे स्वार्थ, सकीर्णता स्वच्छन्दता आदिका जो प्रसार देखा जाता है, वह अकुश सहित हो जायगा और जगत् यथार्थ कल्याणकी ओर प्रवृत्त हो पवित्र 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के भव्य-भवन-निर्माणमे सलग्न हो जाय। इस पर्वकी पूजा वहुत उदार तथा उज्ज्वल भावनाओसे परिपूर्ण है। स्थानका अभाव होनेसे हम केवल सयमकी समाराधनाके परिचय निमित्त लिखते है । द्यानतरायजी कहते है "उत्तम संयम गहु मन मेरे । भवभवके भाजे अघ तेरे । सुरग-नरक-पशु-गतिर्ने नांहीं । आलस-हरन, करन सुख नहीं। ठांही, पृथ्वी, जल, आग, मारत, रूख, त्रस, करना घरो। सपरसन, रसना, घान, नैना, कान, मन, सब वश करो। जिस बिना नहि जिमराज सोझ, तू रुल्यो जग कीचमें। इक घरी मत विसरो करो नित, भावु जममुख बोचमें ।" पृथ्वी आदि पच स्थावर तथा त्रसकायकी रक्षा करते हुए पंच इन्द्रिय और मनको अपने अधीन रखनेके लिए कितनी सुन्दर प्रेरणा की गई है। यदि संयम रत्नकी सम्यक् प्रकार रक्षा न की गई, तो विषयवासनारूपी चोर इस निधिको लूटे विना न रहेगे। कवि सावकको सतत सावधान रहनेके लिए प्रेरणा करते है, अन्यथा भविष्य अन्धकारमय होगा। सयमके समान मार्दव, आर्जव, ब्रह्मचर्य, तपश्चर्या, दान, आदिके विषयमें भी बडे अनमोल पद लिखे गए है। इस प्रकारकी गुणाराधना
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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