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________________ O ने एक वालकको सुमधुर भोजन खिलाया, और मनोरंजक सामग्री दी ; किन्तु अन्तमें उस वालकके प्राण ले लिये। प्रतीत होता है कि युद्धके पूर्व विज्ञानने बडी बड़ी मोहक, तथा आनन्दप्रद सामग्री प्रदान की और अन्त में 'अणुवम' सदृर्ग प्राणान्तक निधि अर्पण की, जिसने जापान की लाखो जनता के प्राणोका तथा राष्ट्र की स्वाधीनताका स्वाहा अत्यन्त अल्प कालमे कर दिया । राष्ट्ररक्षा, विजय, विश्व शान्ति सुरक्षा आदिके नाम पर वैज्ञानिक मस्तिष्क कैसे कैसे घातक यत्र, गोले, गैस आदिके निर्माणमे अपने अमूल्य मनुष्य भावको व्यय करता है, और सभ्य जगत्के द्वारा सगृहीत, निर्मित तथा सुरक्षित अमूल्य अपूर्व तथा दुर्लभ सामग्रीका क्षणमात्रमें ध्वस कर देता है । विज्ञान के कार्यों पर विचार करे, तो ज्ञात होगा कि इससे निर्माण तथा ध्वसकी सामग्री समान रूपसे प्राप्त हो सकती है । यदि इस विज्ञानको अध्यात्मवादका प्रकाश मिलता, तो इसके द्वारा अनर्थपूर्ण सामग्रीका निर्माण न होता। वैज्ञानिकोका कथन है कि वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा परिशुद्ध किया गया कोयला हीरा वन जाता है । इसी प्रकार यह भी कहना सगत है कि पवित्र अध्यात्मवादके वातावरणमे सुरक्षित एव सर्वाधित विज्ञानका यदि विकास हो, तो मानव जगत्म लोकोत्तर शान्ति, समृद्धि तथा तेजका उदय होगा। जड पदार्थके गर्भमे अनत चमत्कारोको प्रदर्शित करने वाली अनन्त शक्तिया विद्यमान है, जिन्हे समझने तथा विकसित करनेमे अनत - मनुष्यभव व्यतीत हो सकते हैं, किन्तु प्राप्त हुआ है एक दुर्लभ नरजन्म। उसका वास्तविक और कल्याणकारी उपयोग इसमे है कि आत्मा पर - पदार्थ के प्रपचमें फम अपने अमूल्य क्षणोका अपव्यय न करे, किन्तु अपनी सामर्थ्यभर प्रयत्न करे, जिससे यह आत्मा विभाव या विकृतिका शनै गर्न परित्याग कर स्वभावके समीप आवे । जिस जन्म, जरा, मृत्युकी मुसीबतमे यह जगत् ग्रसित है, उससे बचकर अमर जीवन और अत्यन्त सुखकी उपलब्धि करना सबसे बड़ा चमत्कार है। यह महाविज्ञान (Science of Science) है। भौतिक विज्ञान समुद्रके खारे पानीके समान है। 1
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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