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________________ २६६ जैनशासन “षषष्टिदिवसान भूयो मौनेन विहरन् विभुः। आजगाम जगत्रख्यात जिनो राजगृहं पुरम् ॥ ६१ ॥ पारोह 'गिरि तत्र विपुल विपुलश्रियम्। , प्रबोधार्थ स लोकानां भानुमानुदयं यथा ॥ ६२ ॥" -सर्ग २ । भगवान्की दिव्य-वाणी प्रकाशनके योग्य गणधरादिकी प्राप्ति होने पर विपुलाचलको ही सर्वप्रथम यह सौभाग्य प्राप्त हुआ कि ६६ दिनके पश्चात् श्रावण कृष्ण प्रतिपदाके प्रभातमे जव कि सूर्य उदय हो रहा था और अभिजित नक्षत्र भी उदित था, भगवान्के द्वारा धर्म-तीर्थकी उत्पत्ति हुई। आचार्य यतिवृषभ तिलोयपण्णनिमे श्रावण कृष्ण प्रतिपदाको युगका प्रारम्भ बताते हैं। ___ससारके महान् ज्ञानी सन्त-जन और पुण्यात्मा नरनारियोके आवागमनसे राजगिरिका भाग्य चमक उठा। अनेकान्त विद्याके सूर्यने राजगिरिके विपुलाचलके शिखरसे मिथ्यात्व अन्धकार निवारिणी किरणोके द्वारा विश्वको परितृप्त किया, इसलिये राजगिरि और उसके विपुलाचलका दर्शन साधकके हृदयमे भगवान् महावीरके समवसरणकी स्मृति जागृत कर देता है। राजगिरिका नाम साधकोको स्मरण कराता है और सम्भवत वे अपने ज्ञान नेत्रसे उस अतीतके आध्यात्मिक जागरणसम्पन्न भव्य कालको देख भी ले, जबकि बनमालीने आकर मगध-सम्राट् श्रेणिकको यह श्रुति-सुखद समाचार सुनाया था, कि श्री वीर प्रभु विपुलाचलपर पधारे है और उनके आध्यात्मिक प्रभावसे सारा वन विचित्र सौदर्यसम्पन्न हो गया है। वनपालकके यह शब्द सदा स्मृतिपथमे गुजते रहेगे “वीर प्रभू विपुलाचल पाए, छह रितु फूली कली कली।" १ "वासस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुलपडवाए। अभिजीगक्खत्तम्मि य उप्पत्ती धम्मतित्थस्स। सावणबहुले पाडिवरुद्दमुहुत्ते सुहोदये रविणो। अभिजिस्स पढमजोए जुगस्स आदी इमस्स पुढं ॥ ६९-७० ॥
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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