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________________ २८ स्पष्ट होता है कि धर्म 'स्वभाव'को द्योतित करता है। विकृति, कृत्रिमता, विभावको अधर्म कहते है। जिस कार्यप्रणालीसे आत्माके स्वाभाविक गुणोको छपानेवाला विकृतिका परदा दूर होता है और आत्माके प्राकृतिक गुण प्रकाशमान होने लगते है, उसे भी धर्म कहते है। मोहरूपी भिन्नभिन्न रगवाले काचोसे धर्मका दर्शन, विविध रूपमें होता है। मोहमयी काचका अवलम्बन छोडकर प्राकृतिक दृष्टि से देखो, तो यथार्थ धर्म एक रूपमें उपलब्ध होता है। राग, द्वेष, मोह, अज्ञान, मिथ्यात्व आदिके कारण आत्मा अस्वाभाविकताके फन्देमे फसी हुई है। इनके जालवश ही यह पराधीन, दीन हीन, दुःखी बनी हुई ससारमें परिभ्रमण किया करती है। इन विकृतियोका अभाव हुए बिना यथार्थ धर्मकी जागृति असभव है। विकारोके अभाव होने पर यह आत्मा अनतशक्ति, अनतज्ञान, अनन्त आनन्द सदृश अपूर्व गुणोसे आलोकित हो जाती है। ___विकारोपर विजय प्राप्त करनेका प्रारभिक उपाय यह है कि यह आत्मा अपूनेको दीन, हीन, पतित न समझे। इसमें यह अखण्ड विश्वास उदित हो कि मेरी आत्मा ज्ञान और आनन्दका सिन्धु है। मेरी आत्मा अविनाशी तथा अनन्तशक्ति-समन्वित है । विकृत जड-शक्तियोके सपर्कसे आत्म जड-सा प्रतीत होता है, किन्तु यथार्थमे वह चैतन्यका पुञ्ज है । अज्ञान असयम तथा अविवेकके कारण यह जीव हतवुद्धि हो अनेक विपरीत कार्य कर स्वय अपने कल्याणपर कुठाराघात किया करता है। कभी-कभी यह कल्पित शक्तियोको अपना भाग्य-विधाता मान मानवोचित पुरुषार्थ तथा आत्मनिर्भरताको भी भुला देता है । वडी कठिनतासे सत्समागम द्वारा अथवा अनुभवके द्वारा इसे यह दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है कि जीव अपने भाग्यका स्वय निर्माता है। यह हीन एव पापाचरण कर किसीकी कृपासे उच्च नही बन सकता। श्रेष्ठ पद प्राप्ति निमित्त इसे ही अपनी अधोमुखी सकीर्ण प्रवृत्तियोका परित्याग कर आलोकमय भावनाओ तथा प्रवृत्तियोको प्रबुद्ध करना होगा।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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