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________________ आत्मजागतिके साधन-तीर्थस्थल २४५ करे। यहा 'दृग्विशुद्धये' शब्द द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि, तीर्थ वन्दना आत्म-निर्मलताके प्रधान अग सम्यग्दर्शनको परिपुष्ट करती है। समाधि-मरणके लिये उद्यत साधक श्रावक अथवा साधुको ऐसे स्थानका आश्रय लेनेको कहा है कि जो जिनेन्द्र भगवान्के गर्भ, जन्म, तप, कैवल्य तथा निर्वाण इन पाच कल्याणकोसे पवित्र हुए हो। यदि कदाचित् उसका लाभ न हो तो योग्य मन्दिर-मठ आदिका आश्रय ले। कदाचित् तीर्थयात्राके लिये प्रस्थान करने पर मार्गमे ही मृत्यु हो जाय तो भी उस आत्माके महान् कल्याणमें वाधा नहीं आती। क्योकि उसकी भावना तीर्थवन्दना द्वारा आत्माको पवित्र करनेकी थी। देखिये, प० आशाधरजी क्या लिखते है "प्रायार्थी जिनजन्मादिस्थान परमपावनम् । आश्रयेत्तदलाभे तु योग्यमहद्गृहादिकम् ।। २६ ॥ प्रस्थितो यदि तीर्थाय मियतेऽत्रान्तरे तदा। अस्त्येवाराधको यस्माद् भावना भवनाशिनी ॥३०॥" -सागारधर्मामृत, अ० ८। इस प्रसगमे भर्तृहरि का यह कथन-"शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्' (२०५५)-यदि मन पवित्र है तो तीर्थकी क्या आवश्यकता है ? विरोधी नहीं है। तीर्थ मानसिक पवित्रताका साधन है। तीर्थ वन्दना स्वय साध्य नही । मानसिक निर्मलताका अग है। जिनके पास वह दुर्लभ पवित्रता नहीं है, उनके लिये वह विगेप अवलम्बन रूप है। तीर्थवन्दना यदि भावोकी पवित्रताका रक्षण करते हुए न की गई तो उसे पर्यटनके सिवाय वास्तविक तीर्थवन्दना नहीं कह सकते। जनताके समक्ष तीर्थ नामसे ख्यात बहुतसे स्थान है। उनमे सभी स्थल सम्यकदर्शनज्ञान-चारित्र समन्वित महान् योगीश्वरोकी साधना द्वारा पवित्र नही है। जो रागी, द्वेषी, कुगुरुओके जीवन से सम्बद्ध है, वे कुतीर्थ कहे जा सकते है। उनकी वन्दना मिथ्यात्वकी अभिवृद्धि करेगी। इसलिये श्रेष्ठ अहिं
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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